प्रसिद्ध लेखक अरूण कुमार शर्मा द्वारा लिखित
क्या वह डायन थी
सन् १९८०, जनवरी का महीना । सुबह के छ: बजे का समय । हाबड़ा स्टेशन, हिमगिरि एक्सप्रेस प्लेटफार्म पर खड़ी थी । उसके छूटने का समय हो गया था ।
मेरे एक मारवाड़ी मित्र हैं – नाम है मन्टूराम । उन्हीं के अनुरोध पर में कलकत्ता आया था । एक सप्ताह बाद लौट रहा था उस दिन । जब मैं मन्टूराम जी से प्लेटफार्म पर खड़ा बातें कर रहा था, उसी समय मेरी नजर एक औरत पर पड़ी । एकबारगी चौक पड़ा मैं । औरत मुझे जानी-पहचानी-सी लगी । मगर उसे पहली बार कब और कहाँ देखा था – यही मेरी समझ में नहीं आ रहा था ।
औरत की उम्र पचास से अधिक ही थी । मगर वैसे देखने में वह पैंतीस-चालीस साल से ज्यादा नहीं लगती थी । बाल अभी भी घने और स्याह थे । चेहरे पर चमक थी । शरीर गठा हुआ था । गोरे रंग और मांसल देह पर क्रीम कलर की साड़ी और ब्लाउज आकर्षक लग रहा था । कमर में लपेटकर कीमती कश्मीरी शाल भी ओढ़े थी वह । हाथ में एक चमड़े की अटैची भी थी । बुक स्टाल पर खड़ी किसी पत्रिका के पन्ने उलट-पुलट रही थी और उसी बीच कभी-कभी उचटती हुई नजरों से वह ट्रेन की ओर भी देख लिया करती थी । शायद हिमगिरि से ही वह भी यात्रा करने वाली थी, ऐसा लगा मुझे ।
संयोग ही कहा जायेगा इसे । मेरे सामने वाली सीट उसी की थी । जब अपने कम्पार्टमेन्ट में घुसा, तो देखा, वह अपनी सीट पर बैठी अखबार पढ़ रही थी और जब गाड़ी चली, तो उसने अखबार से हटकर एक बार मेरी ओर देखा और फिर शाल को ठीक करती हुई मुस्कराकर बोली, ‘आपने मुझे पहचाना ?’
‘पहचाना तो अवश्य, मगर आपको कब और कहाँ देखा था ?’ यह अभी समझ में नहीं आया मेरे।’ मैंने भी मुस्कराकर जवाब दिया ।
मेरी बात सुनकर एकबारगी खिलखिलाकर हँस पड़ी और फिर फैले हुए अखबार को समेटते हुए बोली – ‘मैं वही डायन हूँ – जिसे गाँव वालों ने मार-मार कर अधमरा कर दिया था और गाँव के बाहर कर दिया था।’
एकाएक मस्तिष्क में कुछ कौंध-सा गया और पच्चीस साल पहले की सारी घटनाएँ एक-एक करके चलचित्र की भाँति उभर आयीं मेरे मानस पटल पर ।
क्या तुम पाखी हो ?
हाँ, मैं पाखी ही हूँ । आसाम की पाखी, जिस पर आपने दया की थी और जिसने उस दया के बदले आपके लिए भविष्यवाणी भी की थी । आगे बोली, क्या वह भविष्यवाणी सत्य हुई, जो मैंने आपके लिए की थी ?
हाँ बिल्कुल सत्य घटीं तुम्हारी सभी भविष्यवाणियाँ । मगर एक अभी बाकी है ।
कौन-सी ?
मौत की भविष्यवाणी।
पाखी पहले हँसी फिर गम्भीर हो गयी । बोली – वह भी घट जायेगी । समय तो आने दीजिए ।
आँधी-तूफान की तरह भागती हुई हिमगिरि की गति मन्द पड़ने लगी थी । शायद आसनसोल आने वाला था । पच्चीस वर्ष पहले भी पाखी मेरे लिए एक रहस्य थी और आज भी रहस्य है । पहली बार जिस रूप में उसे देखा था उसमें और आज के रूप और वेश-भूषा में जमीन-आसमान का फर्क था । इतने लम्बे अरसे में इतना भारी परिवर्तन कैसे हो गया पाखी के व्यक्तित्व, वेश-भूषा और उसके जीवन में ।
शायद मेरे मनोभाव को समझ गयी पाखी । बोली – पच्चीस वर्ष के बाद मिले हैं हम लोग । मेरे रूप में, मेरी वेश-भूषा में और मेरे व्यक्तित्व में परिवर्तन देखकर अवश्य आपको आश्चर्य हुआ होगा । आप सोचते होंगे कि यह सब कैसे हो गया ?
हाँ, यही सब सोच रहा हूँ मैं और यह भी सोच रहा हूँ कि एक जादूगरनी के लिए कुछ भी असम्भव नहीं है । फिर बात बदलकर पूछा – कहाँ तक जाना है तुम्हें ?
पठानकोट।
वहीं रहती हो क्या ?
नहीं । पठानकोट से चम्बा जाना है मुझे । वहाँ थोड़े दिन रुककर लद्दाख चली जाऊँगी । वहाँ एक लामा तांत्रिक हैं । बड़े ही सिद्ध पुरुष हैं । वे मुझे अपने साथ तिब्बत ले जाने वाले हैं।’
पच्चीस साल के दीर्घ अन्तराल के बाद भी पाखी को भुला न सका, मैं भी भुला कैसे सकता था उस भयंकर जादूगरनी को ।
गर्मियों के दिन थे । काफी तेज धूप थी । पुरातत्व विभाग की ओर से मैं अपने सहायक के साथ डिब्रूगढ़ से शिलांग जा रहा था । जीप महेन्द्र चला रहा था । मैं उसकी बगल में बैठा, बड़े इत्मीनान से बर्मी सिगार पी रहा था । लगातार तीन घण्टे की यात्रा करने के पश्चात हम लोग घनघोर जंगलों को पारकर सुनसान घाटियों में पहुँच गये थे । लगभग चार-पाँच मील चलने के बाद सामने कुछ झोपड़े दिखलायी दिये । महेन्द्र बोला – कोई गाँव है शायद । चलो, थोड़ा आराम कर आगे चला जायेगा । महेन्द्र के इस विचार से सहमत हो गया मैं । मगर गाँव में घुसते ही हम लोगों ने एक अद्भुत दृश्य देखा । उस प्रचण्ड धूप में एक युवती – जिसकी उम्र पच्चीस-तीस के लगभग होगी-बहुत ही कष्ट के साथ गाँव के धूलभरे रास्ते पर चल रही थी । रंग गोरा था । देह से लिपटी हुई मैली-
कुचैली साड़ी चिथड़े चिथड़े हो गयी थी, जिनमें से अंग-प्रत्यंग झाँक रहा था । सिर खुला हुआ था । धूल से सने हुए बिखरे बाल और पीछे की ओर दोनों हाथ रस्सियों से बंधे हुए थे । उसका फटा हुआ आँचल बार-बार छाती से गिर-गिर पड़ता था । हाथ बंधे रहने के कारण बहुत कष्ट से वह अपने गिरे हुए आँचल को सँभाल पाती थी । चेहरा बुझा अवश्य था मगर आँखो मे तेज था – जिसने मुझे आकर्षित कर लिया | वैसी उज्ज्वल और तेजपूर्ण आँखें बहुत कम देखने को मिलती हैं । लेकिन उसकी आँखों में यातना के भाव स्पष्ट अंकित थे । वह वेदनापूर्ण दृष्टि से अपने चारों ओर के लोगों को देखती और फिर लम्बी साँस लेने लगती । उसके साथ लगभग ४०-५० आदमियों की भीड़ भी चल रही थी । दरवेश के शक्ल में एक व्यक्ति नाचता-कूदता उस भीड़ का नेतृत्व कर रहा था ।
भीड़ जब बिल्कुल करीब आ गयी, तो महेन्द्र ने जीप को एक तरफ कर लिया और गति भी काफी कम कर दी । मगर थोड़ा आगे बढ़ने पर जीप खड़ी कर देनी पड़ी ।
भीड़ में जो लोग उस स्त्री के करीब थे – वे लगभग नंगे ही थे । लंगोटी के अलावा उनके शरीर पर और कोई अन्य वस्त्र नहीं था । वे अत्यन्त उत्साह के साथ अविश्रान्त भाव से ढोलक बजा रहे थे और साथ ही नाच-कूद भी रहे थे । जब भीड़ के साथ वह स्त्री मेरे करीब से गुजरी तो देखा – उसकी हालत उस समय काफी दयनीय थी । पूरा शरीर गर्द से अटा हुआ था । वह जैसे अपने बँधे हुए हाथों का भार वहन नहीं कर पा रही थी ।
उसकी आँखों से झाँकने वाली निराशा और झलकने वाली उदासी के गहरे भाव को जीवन में कभी भी न भूल सकूँगा मैं । उसके बँधे हुए हाथों को देखकर और उसकी यंत्रणा का अनुभव कर मैं एकबारगी गम्भीर हो उठा । चित्त खिन्न हो गया मेरा । उस गाँव में विश्राम करने का विचार त्याग दिया मैंने ।
मेरे साथ एक चपरासी भी था, जिसका नाम था फूलसिंह । वह डिब्रूगढ़ का रहने वाला था । महेन्द्र ने जब उससे यह पूछा, ‘भाई, क्या तमाशा है ?’ तो उसने बतलाया कि यह औरत डायन है । कब्र में दफनाये गये बच्चों की लाशों को निकालकर उन्हें खाती है । गाँव वालों का कोई अनिष्ट न कर जाये, इसी खयाल से इसे इस प्रकार गाँव के बाहर निकाला जा रहा है । इसके पहले इस अंचल में डायनों को जो सजा दी गयी है, उसे देखते हुए यह सजा काफी कम है । फूलसिंह की बात विश्वसनीय थी । कुछ वर्ष पहले अखबारों में इसी जिले का एक विवरण प्रकाशित हुआ था । जिसमें ग्रामवासियों ने एक स्त्री को डायन समझकर जिन्दा ही आग में जला दिया था । वह विवरण काफी लोमहर्षक था । भीड़ जब रास्ते से हट गयी तो महेन्द्र ने गाड़ी स्टार्ट की । लगभग एक मील जाने के बाद एक पहाड़ी नदी मिली । जिसकी चौड़ाई तो कम थी, मगर धारा काफी तेज थी ।
महेन्द्र गाड़ी रोकते हुए बोला, ‘ अब ! अब क्या होगा ?’ फूलसिंह ने बतलाया कि नदी पार करने के लिए ७-८ मील का चक्कर लगाना पड़ेगा और आगे रास्ता भी जंगली है । फिर नदी पार कर रात के वक्त जायेंगे कहाँ ? यहाँ से करीब १५-२० मील तक न कोई गाँव है और न ही ठहरने की कोई जगह । थोड़ा रुककर फूलसिंह बोला, ‘साब ! यहाँ एक डाक बँगला है । क्यों न हम सब आज की रात वहीं ठहरें ।’
करीब एक फर्लांग पर नदी के किनारे ही डाक बंगला था । कभी किसी समय अंग्रेज़ो ने बनवाया था अपने लिए | काफी पुराना था हालत शोचनीय था डाक बगला उसकी दशा दयनीय थी उस समय । तीन-चार कमरे अवश्य थे मगर उनकी भी हालत शोचनीय ही थी । खैर, – फूलसिह ने एक कमरे को साफ किया । हम लोगों का बिस्तर लगाया और फिर खाना बनाने में जुट गया ।
दिन ढल चुका था । ठण्डी हवा बहने लगी थी । मैं और महेन्द्र दोनों काफी थक गये थे थोड़ी देर बाद हम लोग नदी मे नहाये ओर फिर खाना खाकर अपने अपने बिस्तर पर लेट गये । घड़ी की ओर देखा-आठ पैंतीस । मगर रात काफी हो गयी थी । चारों ओर गहरा सन्नाटा छा गया था । महेन्द्र तो बिस्तर पर लेटते ही सो गया था । लेकिन मुझे नींद न जाने क्यों नहीं आ रही थी । मैं उसी स्त्री के बारे में सोच रहा था । उसकी झील जैसी गहरी, तेजपूर्ण और रहस्यमयी आँखें बार-बार मेरे सामने थिरक उठती थीं ।
उसी समय सहसा अँधेरे में न जाने कैसी आवाज सुनाई दी – आवाज ढलान की ओर से आयी थी – जहाँ फूलसिंह ने खाना पकाया था । मैंने उठकर टार्च जलाई और उधर रोशनी फेंकी । विस्मय, कौतूहल और आश्चर्य के मिले-जुले भाव से भर गया मन । जिस औरत के बारे में अभी सोच रहा था मैं – वही बैठी हुयी थी दालान में सिकुड़ी-सिमटी-सी।
टार्च की रोशनी ने जैसे उसे अभिभूत कर दिया था । भागने की चेष्टा उसने नहीं की । विस्मित–सी अपने स्थान पर पूर्ववत् बैठी रही । जब मैं उसके पास गया, तो देखा वह हम सब लोगों की थाली में जो जूठन बचा था उन्हें इकट्ठा कर खाने वाली थी । मगर मुझे देखकर उठकर खड़ी हो गयी और डर से काँपने लगी वह । उस समय उस स्त्री की हालत और दयनीय लगी मुझे । देखा बदन पर काफी चोटें लगी थीं । सिर भी कई जगह फट गया था, जिससे खून बहकर बालों से चिपट कर सूख चुका था । चेहरा भी काफी सूजा हुआ था । मैं और करीब जाकर बोला, घबराओ नहीं ! हम लोग तुम्हें किसी बात का नुकसान नहीं पहुँचायेंगे । तुमको भूख लगी है न ? चली आओ मेरे साथ । खाना भीतर रखा है, लेकर खा लो।
वह पहले हिचकिचायी फिर थोड़ी सहमी भी-मगर चारों ओर देखकर मेरे पीछे चली आयी कमरे में । इसी बीच फूलसिंह भी उठ गया था । उसने जब उस स्त्री को देखा तो घृणा से मुँह फेर लिया । फिर मुझसे कहा-‘साब! आप तो जानते हैं कि यह औरत डायन है । भयंकर जादूगरनी है । गाँव से निकाली गयी है । इसे खाना मत खिलाइए, वर्ना किसी मुसीबत में पड़ जायेंगे आप।’
मगर मैंने फूलसिंह की इन बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया । जब वह स्त्री खाना खा चुकी, तो मैंने उससे कई प्रश्न पूछे । उसका नाम सोना पाखी था । रहने वाली आसाम की थी । एक महीने पहले उस गाँव में रहने के विचार से आयी थी वह । डायन समझकर उसकी जो दुर्गति की गयी थी और जो यातना दी गयी थी और गाँव के बाहर निकाला गया था, वे सारी बातें सच थीं।
अन्त में बड़े ही कातर स्वर में बोली पाखी, बहुत मारा है । बहुत यातना दी है उन लोगों ने । हाड़-हाड़ दर्द कर रहा है । चार-पाँच दिनों से भूखी-प्यासी थी । रोटी का एक टुकड़ा भी किसी ने न दिया खाने को ।
बातचीत के सिलसिले मे मैने पाखी की आखो मे देखी किसी तरुणी की आँखों में जो चमक और मधुरता रहती है – उससे जरा भी कम उस युवती की आँखों में न थी । इसे मैंने प्रकृति की एक विलक्षण बात समझी । पाखी डायन है या नहीं इस बारे में कोई निर्णय न कर सका । लेकिन उसकी आँखों से निकलती हुई विलक्षण ज्योति को देखकर मैं अन्दर ही अन्दर एकबारगी काँप गया ।
क्या मैं तुमसे एक बात पूछ सकता हूँ ? मैंने कहा ।
पूछिए । पाखी ने जवाब दिया ।
क्या तुम सचमुच में डायन हो ? तुम्हें लोग जादूगरनी कहते हैं, क्या यह बात सच है ?
मेरी बात सुनकर पाखी की रहस्यमयी आँखें एकबारगी दप् से जल उठीं । चेहरा भी थोड़ा कठोर हो गया उसका और उसी के साथ एक अमानवीय भाव भी उभर आया वहाँ ।
सहम गया मैं । तभी महेन्द्र भी नींद से उठकर चला आया वहाँ । मुझको पाखी से बातें करते हुए देखकर आश्चर्य हुआ उसे । मगर कुछ बोला नहीं ।
थोड़ी देर शून्य में निहारने के बाद पाखी बोली – हाँ साब ! मैं डायन हूँ । जादूगरनी भी हु मगर पहले थी नहीं, बनायी गयी हूँ । फिर उसने एक लम्बी साँस ली ।
‘मतलब समझ में नहीं आया पाखी ! जरा साफ-साफ बताओ । पाखी इस बार हँस पड़ी । फिर बोली — क्या करेंगे कहानी सुनकर मेरी । बड़ी ही दर्दभरी जिन्दगी है मेरी । कहानी भी उतनी ही दर्दभरी है । फिर सिसकने लगी वह । समझते देर न लगी । निश्चय ही कोई रहस्यमयी मगर दु:खभरी जिन्दगी जी रही थी पाखी । आगे कुरेदना उचित नहीं समझा मैंने । मौन साध गया । मगर रहा न गया । बोला – आज रात यहीं आराम करो
आराम तो करूँ पर गाँव वालों को मालूम हो गया कि मैं रात को यहाँ खाना खायी थी तो शायद वे लोग और दुर्गति करेंगे मेरी । हो सकता है मार भी डालें जान से इस बार ।
नहीं ! अब तुमको कोई मारेगा-वारेगा नहीं । कोई भी दुर्गति नहीं करेगा तुम्हारी । मैं समझ लूँगा । तुम आराम करो ।
पाखी ने मेरे यहाँ खाना खाया और रात में रही भी-जब यह समाचार गाँव वालों को मालूम हुआ, तो सचमुच काफी हंगामा किया लोगों ने, लेकिन जब यह मालूम हुआ कि हम लोग सरकारी अफसर हैं, तो शान्त हो गये सब ।
दूसरे दिन मैं शिलांग पहुँचा । पाखी को भी साथ ले लिया था । वहाँ उसका इलाज कराया मैंने । २-३ दिनों में पूर्ण स्वस्थ हो गयी वह । पहनने के लिए कुछ साडियाँ भी खरीद कर दे दी मैंने । पाखी प्रसन्न हो गयी । मुरझाया और उदास चेहरा खिल उठा गुलाब के फूल की तरह उसका । महेन्द्र ने पूछा – ‘एक डायन के लिए इतना सब क्यों कर रहे हो शर्मा ! क्या लाभ है तुम्हें ?’
‘यह बात मेरी भी समझ में नहीं आ रही है महेन्द्र कि मैं इसकी क्यों इतनी सहायता कर रहा हूँ ? क्या फायदा है मुझे ? कौन-सा स्वार्थ है मेरा कभी-कभी अकेले में भी सोचता हूँ-मेरे मन में पाखी के लिए इतनी सहानुभूति इतनी दया और इतनी करुणा क्यों है ? कौन-सा अदृश्य आकर्षण है उसमें, जिसके वशीभूत होकर मेरी आत्मा इतनी स्नेहिल हो उठी है उस अनजानी तरुणी के प्रति ।
सरकारी काम से मुझे शिलांग में लगभग एक महीने ठहरना पड़ा । मगर इस बीच दो-एक ऐसी अद्भुत और अविश्वसनीय घटनायें घटीं जिससे भयभीत हो उठा मेरा मन और पाखी के प्रति सतर्क हो गया मैं । वह डायन है, वह जादूगरनी है – इसमें जरा-सा भी सन्देह नहीं रह गया मेरे मन में ।
मेरे कैम्प से थोड़ी ही दूर पर बड़ा भारी कब्रिस्तान था । जिसके चारों और घने पेड़ लगे हुए थे । ३-४ दिनों से लगातार बारिश हो रही थी । महेन्द्र, फूलसिंह को लेकर सरकारी काम से डिब्रूगढ़ गया हुआ था, मैं अकेला था । मौसम खराब होने के कारण उस दिन जल्दी ही खाना खाकर लेट गया मैं बिस्तर पर । बहुत ही जल्द नींद आ गयी मुझे ।
रात का न जाने कौन-सा वक्त था जबकि अचानक गहरी नींद से एकाएक जाग उठा मैं । कैम्प में गहरी खामोशी छायी हुयी थी और जागने पर उस गहरी खामोशी में मुझे एक अजीब-सी अनुभूति हुयी । कैम्प के दूसरी ओर खाट पर पाखी भी सोयी हुई थी । उसे आवाज देकर पुकारा । मगर न वह बोली और न तो उठी ही । मैंने टार्च जलाई और रोशनी में देखा कि पाखी वहाँ नहीं है । आश्चर्य हुआ मुझे । इतनी रात को कहाँ गयी वह ? न जाने किस प्रेरणा से हाथ में टार्च लिए कैम्प के बाहर निकल आया मैं । बादलों से अटकर काला पड़ गया था आकाश । हल्की बारिश हो रही थी उस समय । वातावरण में घोर निस्तब्धता छायी हुयी थी । चारों ओर साँय-साँय कर रहा था । कुछ देर तक खड़ा रहा मैं ।
अचानक कई लोगों के खिलखिला कर हँसने की आवाज सुनायी दी मुझे । सतर्क हो गया मैं । आवाज कब्रिस्तान की ओर से आयी थी । धीरे-धीरे चलकर कब्रिस्तान के करीब जब मैं पहुँचा, तो वहाँ का दृश्य देखकर एकबारगी स्तब्ध रह गया मैं । शरीर का सारा खून जम गया बर्फ की तरह । रोमांचिक हो उठा मैं । भय और आतंक से भर गया मन ।
कब्रिस्तान की एक पक्की कब्र पर पाखी बैठी हुयी थी और उसके चारों ओर खड़े थे कई नर-कंकाल । वे नर-कंकाल बिल्कुल जीवित व्यक्तियों की तरह हरकतें कर रहे थे । कभी ताली पीट-पीटकर नाचते-कूदते थे, तो कभी झूम-झूम कर गाते और हँसते थे । कभी- कभी बीच में पाखी भी उन सबके किसी भाव पर खिलखिलाकर हँस पड़ती थी ।
भय और आतंक से मेरा बुरा हाल हो रहा था । अधिक देर तक देखा न गया मुझसे वह भयानक ओर वीभत्स दृश्य | दौड़कर केम्प मे वापस आया ओर हाफते हुए बिस्तर गिर पड़ा । पाखी कब लौटकर आयी पता न चला ।
रात को जो कुछ देखा था मैंने उसे न महेन्द्र से बतलाया और न तो उसके संबंध मे पाखी से ही कुछ पूछा | मै हमेशा भयभीत रहने लगा था, अब एक दिन पाखी ने मेरे जीवन के भूतकाल से सम्बन्धित बहुत सारी बातें बतलायी जो अक्षरत: सिद्ध थीं । उनकी सत्यता में जरा-सा भी भ्रम न था । इसी प्रकार उसने मेरे लिए कुछ महत्वपूर्ण भविष्यवाणियाँ भी कीं ।
यहाँ तक कि मेरी मृत्यु का वर्ष, महीना और मृत्यु की तिथि भी बतला दी उसने । इससे मैं प्रभावित अवश्य हुआ । दिलचस्पी भी अधिक हो गयी पाखी के प्रति । लेकिन फिर भी भय और आतंक के भाव में कमी नहीं आयी ।
एक दिन साझ के समय पाखी डबल होर्श व्हिश्की की बोतल लेकर आयी | इतनी कीमती अंग्रेजी शराब की बोतल कहाँ मिली पाखी को । शिलांग में सिर्फ एक दुकान थी अंग्रेजी शराब की और वह भी मामूली-सी, जहाँ इतनी कीमती शराब का मिलना बिल्कुल असम्भव था । फिर कहाँ से लायी इसे पाखी ? जब इस सम्बन्ध में पूछा तो पाखी सिर्फ मुस्करा कर रह गयी । बड़ी ही रहस्यमयी मुस्कराहट थी वह । समझ में न आया कुछ ।
बोतल और दो गिलास मेज पर रखकर सामने बैठ गयी पाखी, फिर हँसकर बोली – साब ! बुरा मत मानिएगा । कभी-कदा पी लेती हूँ । आज मन कर गया । सोचा, आज आपके साथ बैठकर पीऊँगी । इतना कहकर दोनों गिलासों में उसने मदिरा ढाली । एक मुझे थमा दिया और दूसरा अपने लिए ले लिया ।
गिलास को पकड़ते हुए फिर पूछा – शिलांग में तो यह शराब मिलती नहीं !
आखिर लायी कहाँ से इसे तुम ?
कहीं मिलती तो है न । जहाँ मिलती है वहीं से लायी हूँ । पाखी ने हँसकर जवाब दिया और फिर एक ही साँस में गट्-गट् करके पूरी मदिरा पी गयी वह । थोड़ा रुककर दूसरा गिलास भरा उसने और उसे भी पी गयी उसी तरह । मैं भौचक्का-सा देखता रहा । शराब तेज थी । आँखें लाल हो उठीं । चेहरा भी हल्का गुलाबी हो उठा उसका । मेरी भी हालत विचित्र थी ।मन डूबता-सा लगा । बाद में ऐसा लगने लगा कि किसी भी क्षण चेतनाशून्य हो जाऊँगा मैं । हुआ भी ऐसा ही । न जाने कब और किस क्षण गिर पड़ा मैं बिस्तर पर । खयाल ही नहीं रहा मुझे । ‘डबल हार्स’ मदिरा बहुत पी थी मैंने मगर कभी ऐसी स्थिति नहीं हुयी थी मेरी । आखिर बात क्या थी ? समझ में न आयी ।
उस स्थिति में और उस अवस्था में मैंने अपने आपको एक अद्भुत वातावरण में पाया । सबसे पहले मुझे एक गाँव दिखलायी दिया । बंगाल और आसाम के सीमान्त प्रदेश का था वह कोई गाँव । १५-२० झोपड़े, केलों के कई बाग । गाँव से थोड़ी दूर पर बहती हुई कोई पहाड़ी नदी । जिसकी चौड़ाई तो कम थी, मगर धारा तीव्र थी । एक पक्का घाट था-जहाँ मछली मारने वाली कई नावें बँधी हुई थीं । घाट से थोड़ा हटकर जामुन और आँवले के तीन-चार पेड़ थे । मैंने देखा उन्हीं पेड़ों के गुमसुम एक युवक बैठा था । वह बड़ा ही सुन्दर युवक था । देखने में अत्यन्त भोला ।
उम्र यही रही होगी २०-२२ साल के आस-पास । गोरा रंग, सुगठित देह, लम्बा कद, घने घुँघराले बाल, बड़ी-बड़ी आँखें, सब मिलाकर अत्यधिक आकर्षक व्यक्तित्व था उस युवक का । चूड़ीदार पायजामा और सिल्क का कुर्ता पहने था वह । कभी-कभी सिर उठा कर सामने की ओर देख लिया करता था । उसके चेहरे के भाव और आँखों की भाषा से ऐसा लगता था कि वह युवक किसी का बेसब्री से इन्तजार कर रहा है ।
अनुमान सत्य था। युवक सचमुच ही इन्तजार कर रहा था । और जिसका इन्तजार कर रहा था वह थी एक किशोरी लड़की | साझ की स्याह कालिमा फैल चुकी थी चारों तरफ वातावरण में गहन नीरवता छायी हुई थी । नदी की ओर से झाड़ियों के दर्द भरे गीतों के करुण स्वर आकर हवा की लहरियों में तैर रहे थे । कुछ गीतों को सुनकर चिन्तित हो उठता था वह युवक । अचानक उसके चेहरे पर एक चमक थिरक उठी । अपनी जगह से उठकर खड़ा हो गया वह और थोड़ा आगे बढ़ आया । मैंने देखा कि एक लड़की जिसकी उम्र १४-१५ साल से अधिक नहीं थी-जल्दी-जल्दी चलकर उस पहुँची । लड़की भी काफी सुन्दर और आकर्षक थी । उसके गोरे रंग पर और सुडौल देह पर चम्पई रंग का कुर्ता और धानी रंग का चूड़ीदार पायजामा बड़ा अच्छा लग रहा था । पीठ पर नागिन की तरह बालों की दो चोटिया झूल रही थीं । वह हॉफ रही थी । शायद बहुत दूर से चलकर आयी थी । उसका उभरा हुआ सीना तेजी से ऊपर-नीचे हो रहा था । करीब पहुँचते ही युवक ने दोनों हाथों को फैलाकर उस किशोरी को अपने आगोश में ले लिया और चूमने लगा उसके गुलाबी गालों को । लड़की काफी देर तक युवक के सीने से लगी रही और जब अलग हुयी तो एकबारगी चौंक पड़ा मैं ।
पहचानने में देर न लगी मुझे । वह लड़की और कोई नहीं, पाखी थी । अक्षत यौवना पाखी । दूसरे क्षण उसका स्वर सुनायी पड़ा मुझे । वह कह रही थी-गिरिजेश ! कल वह तांत्रिक फिर से पास आया था ।
क्या कहता था – युवक ने पाखी के बालों को सहलाते हुए पूछा । बस वही पुरानी बात । उसे रुपए चाहिए या उसके बदले मेरा हाथ । थोड़ा रुककर पाखी आगे बोली – मैं जानती हूँ – माँ कभी भी उसका रुपया वापस नहीं कर सकेंगी । और किसी दिन वह क्रूर तांत्रिक मुझे जबरदस्ती ले जाएगा अपने साथ । मैं अच्छी तरह जानती हूँ कि वह मुझे अपनी भैरवी बनाना चाहता है । मुझे भैरवी बनाकर अपनी साधना की पूर्ति के साथ ही साथ अपनी वासना की भी पूर्ति करना चाहता है वह नरपिशाच ।
अन्तिम शब्द के साथ पाखी का गला भर आया । सिसकते हुए आगे बोली वह – क्या तुम चाहते हो कि मैं उस तांत्रिक की निकृष्ट साधना का पात्र बनूँ ? क्या तुम यह चाहते हो कि मेरा यह शरीर उसकी अदम्य वासना की पूर्ति का साधन बने ? बोलो गिरिजेश, कुछ तो बोलो ! कुछ तो जवाब दो ! निर्विकार भाव से सब कुछ सुनने के बाद गिरिजेश पाखी का हाथ थामकर बोला – नहीं पाखी नहीं ! तुमको मैं उस पापी मे नही जाने दूंगा और शीघ्र ही इंतजाम कर वापस कर दूंगा उसका रुपया । माँ से कह देना, और यह भी कह देना कि अब किसी तरह की चिन्ता करने की जरूरत नहीं ।
इसके बाद गिरिजेश ओर पाखी मे जो बाते हुयी उससे मुझे यह समझते देर न लगी कि वे दोनों बचपन के साथी थे । दोनों का अगाध प्रेम था एक दूसरे के प्रति । शीघ्र ही विवाह के बन्धन में बंध जाना चाहती थीं दोनों आत्मायें । मगर दोनों के मार्ग में सबसे बड़ा विघ्र था-तांत्रिक भोलानन्द गिरी । पाखी के पिता महेश्वर राय चौधरी से उसकी मित्रता थी । एक बार उनकी बीमारी में पाँच सौ रुपये देकर भोलानन्द गिरी ने सहायता की थी । इस उपकार का परिणाम यह हुआ कि वह महेश्वर राय चौधरी के परिवार का एक घनिष्ठ सदस्य बन गया । जब उनकी मृत्यु हुयी, तो भोलानन्द गिरी ने परिस्थिति का लाभ उठाकर पाखी की माँ शोभा से शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करना चाहा । मगर वह साध्वी स्त्री इसके लिए तैयार नहीं हुयी । तभी उसकी कलुषित दृष्टि पाखी पर पड़ी ।
उस समय उसकी उम्र १३-१४ साल के लगभग थी । पाखी किशोरावस्था में प्रवेश कर रही थी । उसके यौवन का फूल खिल रहा था – जिसका रसपान करने के लिए आकुल हो उठी उस कृतघ्न तांत्रिक की कलुषित आत्मा । वह जानता था कि पाखी कभी भी अपने आपको उत्सर्ग करने के लिए तैयार न होगी । जोर-जबरदस्ती करना नहीं चाहता था वह पाखी के साथ । इसलिए वह अपने रुपए की बराबर माँग करने लगा । जानता था कि परिस्थिति ऐसी है कि शोभा रुपए कभी भी वापस न कर सकेगी ।
एक दिन अवसर देखकर भोलानन्द गिरी बड़ी ही आत्मीयता से शोभा से बोला – यदि रुपए लौटाने की स्थिति में नहीं हो तो कोई बात नहीं, पाखी है न ! उसको ही मुझे दे दो । यदि चाहोगी तो और रुपए दे दूँगा । पाखी बड़ी हो रही है । शादी-वादी का झंझट भी तुम्हें नहीं उठाना पड़ेगा । उसे दीक्षा देकर भैरवी बना लूँगा । उसका लोक-परलोक दोनों बन जायेगा । मेरे बाद मेरे मठ-आश्रम और मेरी जमीन-जायदाद की वही मालकिन होगी । बोलो तैयार हो ?
भोलानन्द गिरी की यह बात सुनकर शोभा एकबारगी तिलमिला उठी । विष का घूँट पीकर रह गयी वह । बोला न गया उससे कुछ । धीरे से उठी और कमरे के भीतर चली गयी वह । भोलानन्द गिरी कुछ देर खड़ा रहा – फिर पैर पटकते हुए वह भी चला गया ।
पूरी रात पति के चित्र को सामने रखकर रोती रही शोभा । और पाखी को जब ये सारी बातें मालूम हुयीं, तो क्रोध और आवेश से उसका चेहरा लाल हो उठा ।
दूसरे दिन भोलानन्द गिरी ने एक आदमी को भेजकर कहलाया कि यदि दीपावली के भीतर शोभा रुपया वापस नहीं करती तो वह पाखी को जबरदस्ती ले जाएगा ।
शोभा और पाखी दोनों परेशान और चिन्तित हो उठीं इस समाचार को सुनकर । भोलानन्द गिरी का पूरे इलाके में प्रभाव था । लोग उससे डरते भी थे । इसलिए माँ-बेटी उसका विरोध भी नहीं कर सकती थीं ।
अब मेरे सामने दूसरा दृश्य था । देखा – वह पहाड़ी नदी लगभग एक मील आगे जाकर बायी ओर मुड़ गयी थी उस पर विशाल मठ था जिसके एक़ ओर मीलों तक फैला हुआ मैदान था और दूसरी ओर पहाड़ों से घिरा हुआ जंगल था । जिसकी छाती को चीरती हुई नदी की प्रखर धारा आगे बढ़ गयी थी ।
मैंने देखा-मठ काफी पुराना था । उसके भीतर कई बड़े-बड़े कमरे थे । एक कमरे प्रकाश हो रहा था । वह कम चौडा था । एक ओर काली की मूर्ति थी | मूर्ति के सामने बड़ा सा हवन कुंड था जिसमे से धुआ निकलकर कमरे के रहस्यमय वातावरण में छाता जा रहा था । एक और पंचमुखी दीपाचार में दीप जल रहा था । जिसके निकट ही चाँदी कोणी में पूजन की सामग्री रखी हुई थी । नारियल और जवापुष्प भी था यहाँ ।
कमरे के दूसरी ओर एक बहुत बड़ा पलंग था जिस पर गद्दा, तकिया लगा हुआ था और रेशमी चादर बिछी हुयी थी । तरह-तरह के सुगन्धित पुष्पों से सजा हुआ था वह पलंग । तभी मेरी नजर एक भीमकाय व्यक्ति पर पड़ी । काफी मोटा-ताजा था वह छाती काफी चौड़ी थी और पेट बाहर निकला हुआ था । उसकी वेश-भूषा किसी तांत्रिक संन्यासी जैसी थी । दाडी मूँछ तथा सिर के बाल सफाचट थे । उम्र यही रही होगी करीब पचास साल की । लेकिन देखने में इतनी उम्र का लगता नहीं था वह, उसकी आँखें लाल थी । ऐसा लगता था कि उसने आकण्ठ मदिरा पी रखा हो ।
संन्यासी जैसा वह व्यक्ति बाहर टहल रहा था । उसका कोहड़े जैसा सिर ऊपर था और दोनों हाथ पीछे थे । जब मैं उस भयंकर व्यक्ति की ओर देख रहा था – उसी समय फाटक की ओर से कुछ लोग आते दिखायी दिये । उन लोगों की वेश-भूषा तांत्रिक संन्यासियों जैसी ही थी । दो-तीन व्यक्ति कसकर पकड़े हुए थे एक लड़की को शेष लोग उनके पीछे चल रहे थे । उनके हाथों में लाठियाँ थीं । लड़की को तुरन्त पहचान लिया मैंने । वह पाखी ही थी । उसका हाल बुरा था । कहीं-कहीं खून भी टपक रहा था ।
बाल खुलकर पीठ पर बिखरे हुए थे । बराबर चीख-चीख कर रोये जा रही थी पाखी । साथ ही उन राक्षसों के बन्धन से मुक्त होने की भी कोशिश कर रही थी वह |
पाखी को देखकर महिषासुर जैसा वह व्यक्ति हो-हो कर हँसने लगा । समझते देर न लगी । भोलानन्द गिरी था वह व्यक्ति । निश्चय ही उसने पाखी को जबरदस्ती पकड़कर मँगवाया था । उसके आदेश पर लोग उसको एक कमरे में ले गये । थोड़ी देर बाद जब पाखी कमरे के बाहर निकली तो मैं देखकर दंग रह गया एकबारगी । आश्चर्य से मेरी आँखें खुली की खुली रह गयीं ।
अनिर्वचनीय आभा से दप्-दप् कर रहा था उसका चेहरा । मुद्रा गम्भीर थी और एक विशेष प्रकार की विलक्षण शान्ति भी थी वहाँ । आँखें अधमुँदी थी, उसकी सुगठित युवा देह पर लाल रंग की रेशमी साड़ी थी । लेकिन शरीर का ऊपरी भाग अनावृत था । साड़ी का रेशमी आँचल यौवन के मधुकलश की मर्यादा की रक्षा करने में अपने को असमर्थ पा रहा था । दोनों कुचकुम्भों का स्पर्श करती हुयी माणिक और स्फटिक की मालायें गले में झूल रही थीं । कलाइयों में लाल चूड़ियाँ थीं और शुभ्र ललाट पर लाल सिन्दूर का गोल टीका भी था । धीरे-धीरे पग उठाती हुयी पाखी मन्दिर वाले कमरे की ओर बढ़ रही थी ।
हे भगवान वेश भूषा मे चाल ढाल मे व्यवहार ओर भाव मे इतनी जल्दी केसे परिवर्तन हो गया पाखी में । समझ में नहीं आया मेरे । बस अवाक् और भौचक्का-सा देखता रहा मैं पाखी की ओर । ऐसा लगता था पाखी के रूप मे कोई देवकन्या स्वयं स्वर्ग से उतर आयी है ।
मैंने देखा – भगवती महाकाली के सामने उस तांत्रिक ने पाखी के सभी अंगों की विधिवत् पूजा की । इस समय पाखी के शरीर पर एक भी वस्त्र नहीं था । वह सम्पूर्ण नग्न थी । पूजा के अन्त में तांत्रिक ने मदिरा से भरी हुयी चाँदी की कटोरी उसको दी | एक घूँट में सारी मदिरा पी गयी वह पाखी और दूसरे ही क्षण उसका चेहरा लाल हो उठा । अपूर्व आभा से चमक उठा चेहरा और बिखर गये लावण्य के कण मुख-मण्डल पर ।
अपनी भैरवी को अपनी साधनपीठिका बना लिया था पाखी को भोलानन्द गिरी ने । उसकी प्रतीक्षा की घड़ी अब समाप्त हो गयी थी । संकल्प साकार हो उठा था । आशा फलवती हो गयी थी उस तांत्रिक की । उसकी कामना, वासना, साधना की बलिवेदी पर युवावस्था में पदार्पण कर रही थी । एक अबोध सुन्दरी किशोरी ने अपना आत्मसमर्पण कर दिया था और चढ़ा दिया था अपनी सम्पूर्ण आशाओं-अभिलाषाओं को।
रात का तीसरा प्रहर था । अनुष्ठान पूरा हो चुका था । मूर्ति के सामने जल रहे पंच- मुखी दीप की ज्योति मन्द पड़ गयी थी । तांत्रिक भोलानन्द गिरी अपनी भैरवी को लेकर मद्य-सम्भोग मुद्रा में लीन था उस समय । तभी दूर से मुझे गिरिजेश आता दिखायी पड़ा । उसके कन्धे पर बन्दूक लटक रही थी और हाथ में एक पोटली थी । शायद उसमें रुपया था । गिरिजेश तेजी से घुसा और दौड़कर मन्दिर के दरवाजे के सामने आया । दरवाजा भीतर से बन्द था । मगर जोर का धक्का देकर उसने दरवाजा खोल दिया और साथ ही चीखकर बोला – पाखी, मैं रुपया लेकर आ गया हूँ। बाहर निकलो ।
गिरिजेश की आवाज सुनकर पाखी तो बाहर नहीं निकली, हाँ भोलानन्द गिरी अवश्य आँख मलते हुए दरवाजे पर आकर खड़ा हो गया ।
पाखी कहाँ है ? दहाड़ते हुए गिरिजेश ने पूछा।
पाखी यहीं है । मगर अब तुम उससे नहीं मिल सकते ।
क्यों ? चीख पड़ा गिरिजेश
इसलिए कि पाखी पर अब मेरा अधिकार है । वह मेरी भैरवी बन चुकी है, देवी को साक्षी देकर।
ऐसा नहीं हो सकता – यह कहकर गिरिजेश ने कमरे के भीतर घुसना चाहा मगर तभी चौड़े फाल का चमचमाता हुआ एक छूरा आकर उसकी पीठ में घुस गया पूरा । तड़प कर गिर पड़ा जमीन पर । दूसरे ही क्षण गिरिजेश के हाथ में ली हुयी पोटली खुल गयी और सारा रुपया बिखर गया चारों तरफ ।
जिस समय यह लोमहर्षक घटना घटी उसी समय मुझे एक झटका-सा लगा, आँखें खुल गयीं और उसी के साथ एकबारगी मैं चीख पड़ा – पाखी ।
देखा- मुझ पर झुकी हुई पाखी मुस्करा रही थी
बिस्तर से उठकर बैठते हुए हौले से बोला-‘यह सब मैंने क्या देखा है पाखी ?’
पाखी की मुस्कराहट गहरी उदासी में डूब गयी । आपने मेरे अतीत की कथा जाननी चाही थी न ।
मगर फिर तुम्हारी इतनी दयनीय हालत क्यों हो गयी पाखी ?
मेरे इस प्रश्न के उत्तर में पाखी ने सिसकते हुए जो कुछ बतलाया उसे सुनकर जहाँ एक ओर उसकी अघोर तांत्रिक शक्ति का मुझे एहसास हुआ वहीं दूसरी ओर आत्मा भी द्रवित हो उठी मेरी । करुणा से भर गया मेरा मन ।
पूरे दस साल भैरवी के रूप में रही पाखी उस अघोरी तांत्रिक के साथ । उससे पाखी को तामसिक शक्ति की कई अलौकिक सिद्धियाँ प्राप्त हुयीं । इसी बीच पाखी दो बच्चों की माँ भी बनी । मगर उन दोनों को अघोरी भोलानन्द गिरी ने नहीं छोड़ा । बलि देकर दोनों बच्चों की आत्माओं को सिद्ध कर अपने अधिकार में कर लिया उसने । क्रोध, घृणा और क्षोभ से पागल हो गयी पाखी । कौन माँ अपने शिशुओं को अपनी ही आँखों के सामने बलि होते हुए देख सकती है भला ।
साब ! ऐसी अलौकिक सिद्धि और तांत्रिक शक्ति से क्या फायदा जो मन और आत्मा की शान्ति ही छीन ले – पाखी ने उदास स्वर में कहा – गिरिजेश को बहुत चाहती थी मैं । उससे आत्मा की गहराई से प्रेम करती थी मैं । कभी-कभी आज भी उसकी याद में डूब जाती हूँ मैं । उसने मेरे लिए अपनी जान भी दे दी । मगर मैं उसके लिए कुछ न कर सकी । मुझे उस राक्षस ने न पत्नी बनने दिया और न तो माँ ही । आप ही सोचिए साब ! ऐसी औरत की जिन्दगी क्या होगी ? सब कुछ गँवाकर, सब कुछ लुटाकर अंधकार में भटक रही हूँ मैं ।
भोलानन्द गिरी का क्या हुआ ? कहाँ है वह ? पूछा मैंने।
पाखी हँस पड़ी । विषाद में डूबी थी उसकी हँसी । बोली – होगा क्या, जो होना चाहिए वही हुआ । दोनों बच्चों की सिद्ध आत्माओं ने अपनी बलि का बदला ले लिया उस नरपशु से। एक रात अपने कमरे में मरा हुआ पाया गया वह । बड़ी ही घृणित मृत्यु हुई थी उसकी । चेहरा विकृत हो गया था । आँखें बाहर को निकल आयी थीं । सारा शरीर गलकर दुर्गन्धमय हो उठा था । मगर साब ! बदला लेने के बावजूद भी उन दोनों बच्चों की आत्माओं को मुक्ति नहीं मिली । वे बराबर मेरे साथ रहती हैं ।
हैं ! तुम्हारे साथ। आश्चर्य से बोला मैं ।
हाँ साब ! वे हमेशा हमारे साथ ही रहती हैं । अभी पाखी ने अपना वाक्य पूरा किया ही था कि मैंने देखा कि हल्के कुहरे की शक्ल की दो छायायें उसके चारों ओर घूमने लगीं । वे बराबर चक्कर काट रही थीं और उनका आकार भी स्पष्ट होता जा रहा था चक्कर के साथ ही । भय से सिहर उठा मैं ।
कैसी हैं ये छायायें ? कौन हैं इन छायाओं के रूप में ?
मैं आगे कुछ सोचूँ – समझैँ कि उसके पहले ही पाखी बोल उठी – साब! आप घबराइये नहीं ! डरने की भी कोई बात नहीं है । ये मेरे दोनों बच्चों की छायायें हैं । जब कभी मैं इनके सम्बन्ध में कुछ सोचती हूँ उसी समय ये मेरे पास आ जाते हैं । कल कीमती शराब की बोतल यही दोनों लाये थे कलकत्ता से ।
ऐं। क्या कहती हो तुम
हाँ साब ! मैं सच कह रही हूँ । मेरी बात पर यकीन करें आप । इतना कहकर पाखी ने चक्कर काटती हुयी उन छायाओं की ओर मुँह घुमाकर कुछ संकेत किया – जिसे मैं समझ न सका मगर कुछ ही छण के बाद देखा मेरे सामने कीमती शराब की बोतल टोकरी में भरे फल और मिठाइयाँ रखी हुयी थीं । अवाक् और स्तब्ध हो गया मैं । कैसे और कहाँ से आया यह सब सामान ?
पाखी बोली – मेरे बच्चों की आत्माएँ लायी हैं ये सब । उन्हीं का चमत्कार है ।
कुछ देर बाद वे चक्कर काटती हुई छायायें गायब हो गयीं । मैं पाखी का मुँह ताकता रह गया । देखा – उसके चेहरे पर वात्सल्य का भाव उभर आया है । बहुत देर तक न जाने किन भावनाओं और किन विचारों के सागर में डूबी रही वह । मगर जब तन्द्रा भंग हुई, तो देखा-पाखी का चेहरा आँसुओं से भींग उठा था।
एक प्रकार से कहानी यहीं समाप्त हो जाती है । एक-एक कर सारी घटनाओं को भूल ही गया था । पच्चीस वर्ष के दीर्घ अन्तराल के बाद यदि पाखी हाबड़ा स्टेशन पर न मिली होती तो शायद इस कथा को लिपिबद्ध भी न कर पाता मैं । घड़ी की ओर देखा – चार पन्द्रह । बनारस आ गया था । पच्चीस साल बाद हम दोनों मिले थे । अब फिर कब मिलेंगे, यह भविष्य के गर्भ में था ।
जब ट्रेन से उतरने लगा, तो सहज स्वर में पाखी बोली – आपने मेरे प्रति जो उपकार किया था उसे मैं कभी नहीं भूल सकूँगी । क्या दूँ उन उपकारों के बदले आपको ? मेरे पास तो कुछ भी नहीं है ।
मैंने देखा – पाखी की आँखों में आँसू छलक आये थे । गला भी भर आया था उसका । प्रणाम की मुद्रा में जुड़े हुए उसके दोनों हाथ काँप रहे थे ।
चार-पाँच महीने बाद लद्दाख से पाखी का आज एक पत्र आया है । वह बनारस आना चाहती है । उसका कहना है कि अपने दोनों बच्चों की आत्माओं को प्रेत योनि से मुक्ति दिला दूँ मैं ।