मनिपुर के हत्याकांड | टिकेंद्रजीत सिंह की कहानी । Manipur Ka Hatyakand

Manipur Ka Hatyakand

मनिपुर के हत्याकांड | टिकेंद्रजीत सिंह की कहानी । Manipur Ka Hatyakand

मनिपुर का राज्य अंग्रेजो के अधिकार में कैसे गया ? इसके पहले यह भी जानना कम आश्चर्य जनक नहीं, कि जिस राजा ने इस्ट इण्डिया कम्पनी की हर तरह सहायता और सेवा की थीं और जो राजा सदा ही अंग्रेजो का प्रशंसक तथा हिमायती बना रहा, उसे अन्त में किस तरह अंग्रेजो का बन्दी बनाकर फॉसी पर लटकना पड़ा और अंग्रेजो ने कैसे कौशल तथा साहस से मनिपुर का विस्तृत राज्य हथिया लिया ?

भारत में जैसे समस्त देशी राज्यो के पतन हुआ है, वैसे ही मनिपुर का भी समझिये । इस देश में ब्रिटिश राज सत्ता की जड़ जमाने में जैसे अन्य भारतीय नरेशो का अन्त और बलिदान हुए, वैसे ही वीर बलिदान मनिपुराधिपति महाराज टिकेन्द्र जीत सिंह जी तथा अन्य मनिपुरियों के भी हुए थे ।

AVvXsEi2M0 kkgdnUTyDc5uJJh5Agg13 PdSIKdYFif01 z0MtqU1fZQVEWOopuQZK2KEon5rV3IQziG2ZvePBu lPFU ax9gp RZ 3F7MUaxuXJJERFi9olWrf13fWNuhX7ozDT2aOftjF j2VhmDa5aCLi FoEUwHJi6 unGt dKHJchcpdSBNmd9WdTVg=s320

नागा जाति का इतिहास


पूर्वी बंगाल के उत्तर-पूर्वं स्वाधीन पर्वत राज्य त्रिपुरा के पूर्वोत्तर कोने में मनिपुर स्थित है । मनिपुर की उत्तरी सीमा पर “नागा” नाम की पहाड़ियाँ हैं, यहाँ के निवासी भी नागा जाति के नाम से प्रसिद्ध हैं । नागा प्रान्त सम्पूर्णतया पर्वती है और चारों ओर घने दुर्गम जंगलो से घिरा है । इस तरफ अंग्रेज सरकार का अभी तक प्रवेश नहीं हो पाया था, पर अब अंग्रेज उधर से सुगम मार्ग बनाने की फिक्र में थे, क्योंकि उन्हें चीनी या रूसी हमले के भय से आसाम की उत्तर-पूर्वीय सीमा पर ब्रिटिश सेनाओं के लिये जंगी अड्डा बनाना परमावश्यक था, इस जंगी अड्डे के लिये कार्य तेजी से आरम्भ हो गया था । नागाजाति की सीमा निकट होने से मनिपुरवालों और नागाओं में पहले बराबर युद्ध हुआ करते थे, जिनमें कभी मनिपुर और कभी नागा विजयी होते थे । अंग्रेजो का सम्बन्ध मनिपुर से अट्ठारहवीं शताब्दी के मध्य से आरम्भ हुआ था । उस समय भारतीय नरेशों में कलह का बाज़ार खूब गर्म था । हर एक राजा किसी विदेशी शक्ति की सहायता से अपने पडोसी राज्य को दबाना चाहता था ।

भारतीयों का यह निन्दनीय आदर्श या सिद्धान्त महाराज जयचन्द के समय से चला आता है, जब कि उस नरेश ने पृथ्वीराज को नीचा दिखाने के लिये शहाबुद्दीन गौरी की सहायता ली थी और अन्त में विजयी गोरी ने उसे भी मारकर समृद्धिशाली भारतीय राज्य दबा लिया था । उसी तरह उस समय बंगाल के मुसलमान शासको कि अत्याचारो से उत्पीड़ित होकर कूचविहार, गोहाटी आदि हिन्दू राज्यों ने अंग्रेजो की सहायता लेनी आरम्भ कर दी थी । ऐसी अवस्था देखकर मनिपुर के महाराज ने अंग्रेजो के साथ मेल-जोल बढाये रखना आवश्यक समझा । पर यही विदेशी मेल अन्त में मनिपुर के लिये घातक सिद्ध हुआ ।

पूर्वीय बंगाल में मुसलमानो का शासन छः सात सौ वर्ष रहा, पर वे मेवाड़ की तरह मनिपुर जैसे साहसी स्वतन्त्र राज्य पर कभी पुरी तरह से अधिकार न कर सके । मनिपुर निवासी और नरेश स्वतन्त्रता के लिए ऐसे कट्टर थे, कि उन्होंने बार-बार यवनों को हराया । उस समय मुसलमानो का शासन नष्ट सा हो रहा था और उसकी जगह अंग्रेजो की ईस्ट इन्डिया कम्पनी अपने प्रभुत्व का विस्तार कर रही थी । नागा जाति से मनिपुरवालों का विरोध कभी दूर न हुआ । एक समय नागाओं का इतना प्रभुत्व हो गया था, कि उन्होंने मनिपुर पर कुछ समय के लिये अधिकार भी कर लिया था । बाद में उन्हीं नागाओं ने बर्मा पर भी चढ़ाई कर दी और वे जब अग्रसर होकर बमियों से लड़ रहे थे, उस समय सुभवसर देख मनिपुर के मूल अधिकारियों ने पुनः अपना राजसिंहासन अपने अधीन कर लिया था ।

महाराजा जयसिंह


सन् १७६० ई० में महाराज जयसिंह मनिपुर के राज-सिंहासन पर विराजमान थे। पर बर्मा वाले अपना पुराना बैर ने भूले थे और वे मनिपुर पर आक्रमण करने की तैयारियों करने लगे । इस समय महाराज जयसिंह बड़े चिन्तित हुए, और उन्हें किसी सहायक की आवश्यकता हुई । उनका ध्यान अंग्रेजो की ओर गया; क्योंकि उस समय ईस्ट इण्डिया कम्पनी भी अपने स्वार्थ के कारण बर्मो से नाराज़ थी । पर कम्पनी की नीति बर्मो से एकदम युद्ध करने की नहीं थी । तो भी महाराज जयसिंह की प्रार्थना पर अंग्रेजो ने चटगाँव से सन् १७६२ में छः पल्टने मनिपुर के लिये भेजीं; पर इन पल्टनों के प्रधान सेनापति को यह आज्ञा थी, कि “तुम ब्रह्म देश (बर्मो) में जाना; वहाँ के लोगों का रंग-ढंग देखना; उनके उद्देश्य का पता लगाना और उनकी सैनिक शक्ति का सब हाल जान लेना, किन्तु उनके साथ लड़ाई मत मोल लेना।” हुआ भी वैसा ही । ईस्ट इण्डिया कम्पनी के छः सेनादल मनिपुर में गये तो जरूर; पर उन्होंने वहाँ के राजा की कोई सहायता न की । वे केवल अपना ठाट-बाट और आडम्बर दिखा कर, मनिपुर की अवस्था जान और जहाँ तक हो सका, अपने जासूसों के द्वारा बर्मा की शक्ति का पता लगाकर लौट आये। इसके बाद अंग्रेजो के आदमी व्यापार आदि के बहाने मनिपुर बराबर जाते रहे किंतु आगामी ६०-६२ वर्षों तक मनिपुराधिपति के साथ कोई राजनीतिक सम्बन्ध नहीं हुआ था ।

महारानी विक्टोरिया के राजकाल प्रारम्भ में मनिपुर के राजसिंहासन पर महाराज गम्भीर सिंह प्रतिष्ठित थे । उनकी अंग्रेजो से खुब मित्रता हो गयी थी । सन् १८२४ ई० में अंगेजो की लड़ाई बर्माधिपति से ठन गयी । कारण यह था, कि सन् १७५० ई० से बर्मा राज्य के अंतर्गत “नेग्रीज” नामक एक द्वीप में अंग्रेज ने व्यापार करना शुरू किया था । चतुर घातक अंग्रेज व्यापारियों ने तरह-तरह के प्रलोभनों और उपायों से बर्मा के नासमझ राजा को प्रसन्न कर सन् १७५७ ई० में नेग्रीज द्वीप में बिना किसी कर या लगान के व्यापार करने की अधिकार प्राप्त कर ली थी । अंग्रेज लोग वहाँ स्वतंत्र होकर व्यापार-वृद्धि करने लगे, पर उनकी चालों और पड़यन्त्रों से नेग्रीज द्वीप में रहने वाले बर्मी लोग उन पर बिगड़ उठे । वे अचाकन अंग्रेज व्यापारियों की कोठी पर टूट पड़े, और वहाँ के प्रमुख अंग्रेज कर्मचारियों को मार डाला । कुछ को घायल किया । इस कांड में दोष चाहे जिसका हो, पर उसी समय से अंग्रेजो ने यह ख्याल किया, कि यह कांड बिना बर्मी राजा के इशारे पर नहीं हो को सकता था । इसलिये वे बर्मावालों से बदला लेने पर उतारू हो गये ।

राजा गंभीर सिंह


इस बार आग कुछ अधिक भड़क उठी । इधर बर्मा वाले भी अंग्रेजो पर खार-खाये बैठे थे; उन्होंने तुरन्त अंग्रेजो के अधिकृत आसाम और कछार के हिस्सों पर आक्रमण किया । मनिपुर वालों का मेल-जोल अंग्रेजो से अधिक था । इस लिये बर्मी लोग मनिपुर से भी बिगड़े । बर्मी सेना, जो कछार पर आक्रमण करने के लिये भेजी गयी थी, उसने मार्ग में मनिपुर पर हाथ भी साफ करना चाहा । मनिपुराधिपति महाराज गम्भीर सिंह ने अंग्रेजो से सहायता माँगी । ऐसा सुअवसर देख, भला अंग्रेज भी कब चूकने वाले थे ? अंग्रेजो ने अपने दक्ष सेना-दल मनिपुर भेजे और कई दल तोपों सहित कछार की ओर भेजे । इन सब दलों ने मिल कर बर्मियों को बुरी तरह परास्त किया । मनिपुर के विजयी राजा गम्भीर सिंह बड़े प्रसन्न हुए और उनके राज्य की सीमा बढ़ा कर कुबोघाटी तक स्थिर कर दी गयी । सन् १८३२ के बाद बर्मा की पहली लड़ाई खत्म हुई और उस समय अंग्रेजो ने बर्मा को दबा कर जो संधि की, उसमें यह शर्त भी थी, कि भविष्य में बर्मा वाले मनिपुर को एक स्वतन्त्र राज्य मानते हुए उस पर कभी चढ़ाई न करेंगे । इसके बाद अंगेजो ने सन् १८३३ में मनिपुर से भी एक सन्धि की, जिसके अनुसार अंग्रेज व्यापारियों को वहाँ सुविधाएँ आदि मिले । दूसरे समझौते के अनुसार अंग्रेजो ने कुबोघाटी फिर बर्मा को दिला दी और इसके बदले में अंग्रेज स्वय ६५००रु० मनिपुर को क्षतिपूत्ति स्वरूप देने लगे । इस तरह कूटनीति से अंग्रेज सरकार बर्मा और मनिपुर दोनों की विश्वासपात्र बन गयी ।

सन्‌ १८३४ ई० में जब राजा गंभीर सिंह का देहान्त होने लगा, तब उन्होंने अपने छोटे भाई सेनापति राजा नरसिंह से कहा, कि “मेरे शिशु पुत्र चन्द्र कीर्ति को राज सिंहासन पर बैठाना ।” महाराज की मृत्यु के बाद सेनापति नरसिंह ने नाबालिग चन्द्रकीत्ति का संरक्षक बन कर राजभार योग्यापूर्वक सम्भाला । पर घड़ियाल की तरह ताक लगाये हुए अंग्रेजो ने यह अच्छा अवसर देख कर मनिपुर राज्य में अपना एक रेज़िमेंट बना लिया । बस,उस रेत वाली रेज़िडेन्सी के स्थापित होते ही अग्रेजो के फौलादी पंजे मनिपुर में जमने लगे । इसके बाद मनिपुर में गृह-कलेष भी आरम्भ हो गया । राजा नरसिंह का सगा छोटा भाई देवेन्द्रसिंह राजगद्दी पर बैठने का स्वप्न देखने लगा । उसने पड़यन्त्र करके महाराज गम्भीर सिंह की विधवा महारानी तथा तेरह वर्ष के नाबालिग लड़के चन्द्रकीर्ति सिंह को मनिपुर से भगा दिया, जो कछार चले गये;और बाद में राजा नरसिंह को भी मरवा डाला । इसके बाद कपटी भाई देवेन्द्र सिंह राजगद्दी पर बैठा । उसके अत्याचारों से प्रजा पीड़ित रहने लगी ।

किन्तु चन्द्रकीर्ति सिंह की आयु जब १९ वर्ष की हुई, तो उन्हें मनिपुर-राज्य का ध्यान हुआ, वे वीर और साहसी थे । वे अकेले मनिपुर चले आये; प्रजा ने उन्हीं का साथ दिया । अन्त मे युद्ध हुआ, जिसमें देवेन्द्र सिंह हारकर भाग गया; और चन्द्र किर्ति गद्दी पर बैठे ।

इसके बाद अंग्रेज सरकार ने चन्द्रकीर्ति से सन्धि की । महाराज चन्द्रकीर्ति ने प्रजा का सुख बढ़ाने में बहुत उत्साह दिखाया । उस समय मनिपुर में डाकखाना; अस्पताल, तार-घर आदि भी बन गये थे । इसके बाद अंग्रेजो की लड़ाई वहा के नागा जातिवालों से हुई; जिसमें नागाओं का दमन करने में महाराज ने अंग्रेजो की बड़ी सहायता की थी ।

महाराज चन्द्रकीर्ति सिंह


महाराज चन्द्रकीर्ति सिंह ने आठ विवाह किये थे । पहली रानी से चार पुत्र हुए-शूरचन्द्र सिंह, केशरजीत सिंह, भैरवजीत सिंह और पदमजोचन सिंह, दूसरी से दो पुत्र और तीसरी रानी से टिकेन्द्रजित सिंह हुए । इसी तरह अन्य रानियों से भी कई लड़के हुए । तीसरी रानी के पुत्र टिकेन्द्रजित सिंह इस इतिहास के मुख्य नायक हैं । देहान्त के पूर्व महाराज चन्द्रकीर्ति सिंह ने अपने ज्येष्ठ पुत्र शूरचन्द्र को राज पद पर बैठा दिया था तथा अन्य पुत्रों को भी सम्मान के पद दिये थे ।

कुँवर टिकेन्द्रजित सिंह बाल्यावस्था से ही बड़े शूरवींर थे । घुड़सवारी और रणविद्या में वह निपुण बनाये गये थे । शिकार का उनको बहुत शौक था । उन्होने कितने ही शेरो को अकेले ढाल-तलवार या भाले की सहायता से मारा था । उनका पढ़ने लिखने में मन नहीं लगता था । उनका एक मात्र लक्ष्य था – सच्चा वीर होना तथा स्वदेश की स्वतंत्रता की रक्षा करना । वे इस लक्ष्य से कभी विचलित न हुए । कुँवर टिकेन्द्रजित ने सन् १८७८ ई० में अंग्रेजो की अमूल्य सहायता नागा युद्ध में की थी । उन्होंने अपूर्व रणकौशल से अंग्रेज़ सैनिकों और उनके बाल बच्चों की रक्षा हुई थी । डेढ़ महीने तक नागाओं से घोर संग्राम करके टिकेन्द्रजित ने नागाओं की शक्ति छिन्न-भिन्न कर दी थी । इस पर अंग्रेज भी उन पर बहुत प्रसन्न हुए थे । मनिपुर के सब सैनिकों को इनाम देते हुए अंग्रेजो ने कुमार टिकेन्द्रजित सिंह को एक बहुमूल्य स्वर्णोपदक प्रदान किया था । इसके बाद सन् १८८५ में जब बर्माधिपति “थिबो” के साथ अंगरेज़ों की लड़ाई हुई, तब उस समय भी टिकेन्द्रजित के ही पराक्रम और रण-कौशल ने अंग्रेजो की जानें बचायी थीं । इसी तरह अनेक अवसरों पर कुमार टिकेन्द्रजित ने अंग्रेजो को अमूल्य सहायता की थी, और यदि उस समय कुमार न होते, तो सचमुच उधर अंग्रेज का अस्तित्व ही लोप हो गया होता ।

उनकी वीरता देखकर महाराज शूरचन्द्र ने उन्हें प्रधान सेनापति का पद प्रदान किया । पर सन् १८८६ में जब मनिपुर पर आक्रमण करने वाले शत्रुओं से लड़ने के लिये कुमार टिकेन्द्रजित सिंह ने अंग्रेजो से सहायता माँगी, तो अग्रेज़ो ने साफ इनकार कर दिया । वीर टिकेन्द्रजित ने अपने ही बल से शत्रुओं को परास्त किया था । इसके बाद और भी कई लड़ाइयों में कुमार ने विजय प्राप्त किया । किन्तु राज-परिवार में ग्रह-कलह आरम्भ हुआ । सौतेले भाई राज लिप्सा के कारण आपस में लड़ने-झगडने लगे । एक दिन अर्धरात्रि में एकाएक दो सौतेले भाई महाराज शुरचन्द्र के महल पर चढ़ आये और उस समय महाराज को भी विवश होकर खिड़की की राह से भागना पड़ा । उस आन्तरिक क्रान्ति के समय कुमार टिकेन्द्रजित ने बड़े ही कौशल से क्रान्तिकारियों को अपने वश में किया तथा शस्त्रागार, बारूदखाने, खजाने आदि पर उनका अधिकार हो गया । इधर महाराज शूरचन्द्र भागकर अंग्रेजो की रेज़िडेन्सी में शरण लेने के लिये गये । वहा के अंग्रेज एजेण्ट मिस्टर ग्रिमउड ने महाराज को सान्तवना दी और सब फसाद की जड़ कुमार टिकेन्द्रजित सिंह को बताया । मि. ग्रिमउड के षड़यन्त्रों से महाराज शूरचन्द्र कुछ हताश हो गये और फिर वे आसाम के चीफ कमिश्नर मि. किएटन से मिलने चले गये; पर उससे मुलाक़ात नहीं हुई । अन्त में महाराज कलकत्ता आये ।

इधर युवराज कुलचन्द्र, जो उस रात से चार कोस की दूर पर चले गये थे, बुलाये गये और उन्हें राजसिंहासन पर बैठाया गया । टिकेन्द्रजित और अन्य भाइयों ने उनकी अधीनता स्वीकार की । उसी समय टिकेन्द्रजितसिंह को युवराज पद मिला । पर रेजिडेंट मि. प्रिमउड को आसाम के चौक कमिश्रर मि. किएटन ने लिखा-“कुलचन्द्र को मनिपुर का महाराज मानने में सरकार की मंजूरी लेनी आवश्यक है ।”

इसके बाद अंग्रेजो ने भी अपने असली दाँत दिखाने शुरू किये । भारत-सरकार की पलटी हुई धारणा के अनुसार यह निश्चय हुआ, कि शूरचन्द्र को छोड़ दिया जाये और कुलचन्द्र को ही मनिपुर का महाराज मान लिया जाये; पर कुलचन्द्र को अपने इच्छानुसार संधि की शर्तों में जकड़ लिया जाये । अंग्रेजो की भेजी शर्ते इस प्रकार थीं : –

(१) महाराज कुलचन्द्र मनिपुर की रेज़िडेन्सी में ३०० रक्षक सैनिक रखने में कोई आपत्ति न करें । (२) पोलिटिकल एजेंट की सलाह से महाराज कुलचन्द्र शासन करे । (३) महाराज कुलचन्द्र सेनापति टिकेन्द्रजितसिंह को निर्वासित करे और इस काम में वे अंगरेज़ सरकार की पूरी मदद करे ।

उस समय लार्ड लेन्सडाउन भारत के वायसराय थे । वे समझते थे, कि दुर्बल हृदय वाले महाराज से इन अपमानजनक शर्तों को स्वीकार करा लेगे । २१वीं मार्च १८९१ को महाराज शूरचन्द्र को लिखा गया, कि अब आपको राज्य नहीं मिल सकता; पर अंग्रेज सरकार आपको पेन्शन देगी और जिन लोगों ने आपके विरुद्ध बगावत की, उन्हें दण्ड देगी । सरकार ने आसाम के चीफ कमिश्नर मि. क्विण्टन को आज्ञा दी, कि टिकेन्द्रजितसिंह को धोखे से पकड़ना, जिसमें कोई उपद्रव न हो। मि. क्विण्टन ने सरकार की सलाह से एक दरबार करने का निश्चय किया, जिसमें टिकेन्द्रजित सिंह को आसानी से गिरफ्तार किया जा सके । दरबार हुआ; पर अस्वस्थ रहने के कारण टिकेन्द्रजित उसमंज न आये। तब मि. ग्रिमउड कुछ सैंनिकों के साथ उनके महल के निकट गये, तब भी वे नहीं आये । इसके बाद महाराज के पास निमन्त्रण भेजा गया, कि “आज रेजिडेन्सी में नाच-गान होगा, आप सभी अवश्य पधारें” पर महाराज नहीं गये । इसके बाद मि. क्विन्टन ने अपनी निकाय उलट दी और महाराज को साफ लिखा, कि “टिकेन्द्रजितसिंह ने बहुत उपद्रव और बलवा फैलाया है, इसलिये उन्हें हमारे सुपुर्द कीजिये ।” पर उन्हें उत्तर में यही लिखा गया, कि युवराज टिकेन्द्रजितसिंह की तबियत अच्छी नहीं है। किन्तु मि. ग्रिमउड सहज में ही रूकनेवाले न था । वह युवराज से मिलने के लिये अड़ गया । खैर, तीसरे पहर युवराज टिकेन्द्रजितसिंह एक डोली पर सवार होकर बाहर आये । मि. ग्रिमउड ने युवराज से कहा,- “आपको मनिपुर छोड़ देना होगा । भारतवर्ष में कहीं दूसरी जगह जाकर रहना होगा । और भारत सरकार आपको पेन्शन दिया करेगी।”

युवराज ने कहा, -“आपको इसको फिक्र क्यों है ?

हमारे इस छोटे से स्वाधीन राज्य की घरेलू बातों के लिये आप इतनी माथापच्ची क्यों करते हैं ? मैंने यदि इस राज्य में कोई अपराध किया है, तो महाराज मुझे दण्ड दे सकते हैं ! वे जो दण्ड देंगे, मैं उसे सहर्ष स्वीकार करूगा। पर क्या आप यह बतायंगे, कि भारत सरकार यहाँ के मामलों में हस्तक्षेप करने के लिये इतनी व्याकुलता क्यों दिखा रही है ?”

मि. ग्रिमउड-“भारत-सरकार ने आपको यहाँ से अन्यत्र भेज देने में ही मनिपुर का कल्याण समझा है और महाराज शूरचन्द्र सरकार के पास अपने राज्य पुनः दिलाने के लिये बराबर लिख रहे हैं ।”

युवराज,-“भारत-सरकार इतनी परेशानी क्यों उठा रही है ? यदि मुझे देश निकाले की सज़ा देनी ही हो, तो सरकार पहले यह भी तो देख ले, कि वास्तव में मैं दोषी हूँ या नहीं।”

मि. ग्रिमउड,-“युवराज ! आपके साथ मेरी पुरानी दोस्ती है । आपका हृदय कितना उन्नत है, आप कैसे दानी और उदार पुरुष हैं तथा मनिपुर के लोग आप पर कितनी श्रद्धा और भक्ति रखते हैं, यह सब मुझे भली भाति मालूम है; लेकिन-..”

युवराज ने बात काटकर और कुछ हँसकर कहा, – “तो क्या मेरे इन्हीं अपराधों के लिये मुझे निर्वासन दण्ड दिया जाता है ?”

ग्रिम. -“नहीं-नहीं, सरकार इन सब बातों पर भी ज़रूर विचार करेगी।”

युवराज,-“जी हाँ, मैं सब जानता हूँ। कहिये, आप और क्या कहना चाहते हैं ?”

ग्रिम. ,-“मैं आपको अपना प्रिय मित्र समझकर सलाह देता हूं, कि आप एक बार मेरे साथ रेजिडेन्सी तक चले चलिये और चीफ कमिश्नर साहब से मिल लीजिये ।

युबराज,-“नहीं; इस समय मेरी तबियत बहुत अस्वस्थ है-अभी मैं किसी तरह वहाँ नहीं जा सकता । तबीयत अच्छी होने पर मिलूगा।”

इसके बाद मि. ग्रिमउड हताश होकर लौट गये । इधर युवराज ने भावी आशंकाओं का ध्यान करके आत्मरक्षा के लिये सैनिकों से अपने महल और अन्य स्थानो की यथेष्ट रक्षा कर ली । किन्तु उधर अंग्रेज़़ अधिकारियों ने यह निश्चय किया, कि “महाराज चाहे खुश हो या नाराज़ ; पर युवराज को आज ही रात में गिरफ्तार करना चाहिये।”

रात के पिछले पहर मि. किन्टन ने युवराज के महल पर एकाएक हमला करना निश्चय किया; क्योंकि उन्होंने सोचा, कि पिछले पहर सैनिक लोग प्रायः सो जाते हैं । मि. किन्टन बड़ी होशियारी से थोड़े से अंग्रेज और गोर्खे सैनिक लेकर बढ़े । दूसरा अफ़सर कुछ सैनिको के साथ उत्तर वाले फाटक पर पहुँचा । उनकी मदद के लिये अन्य सैनिक भी अलग आ रहे थे । कैप्टन बूचर सशस्त्रदल अंग्रेज़ सैनिकों के साथ फाटक लांघ कर भीतर घुसे । मनिपुरी सेना जब तक बाहर वालों से उलझ रही थी, तब तक केप्टन बूचर सीढ़ियाँ लगा कर, महल की चारदीवारी लाँघ कर भीतर दाखिल हो गये। बाहर गोले-गोलियों की बौछार हो रही थी । कप्तान बूचर महल के एक-एक कमरे में युवराज को खोजने लगा; पर युवराज का कहीं पता न लगा । युवराज टिकेन्द्रजित भी एक बहुत ही होशियार सेनापति थे । उन्होंने अपने विश्वस्त गुप्तचरों और जासूसों से मि. किन्टन के सब मन्सूबे पहले ही जान लिये थे । इसीलिये वे महल से पहले ही किसी अन्य सुरक्षित स्थान में सकुटुम्ब चले गये थे । इधर अंग्रेज सैनिकों और मनिपुरी सैनिकों में घोर युद्ध होने लगा । चारों ओर से मनिपुरी सैनिकों ने निकल कर मारना-काटना आरम्भ कर दिया, कई अंग्रेजो की लाशें गिरी, जो लोग युवराज को गिरफ्तार करने आये थे, उन्हीं की जानों के लाले पड़ गये ।

इसके बाद रेज़िडेन्सी में भी भीषण आतंक छा गया । अंग्रेजो के होश उड़ गये । कुछ देर बाद रेज़ीडेंसी पर भी गोलियाँ बरसने लगीं । टेलिग्राफ के सब तार काट डाले गये। रेज़िडेन्सी के अंग्रेज सोचने लगे, कि सारा बखेड़ा तो हमींलोगों ने खड़ा किया है, इसलिये अब संधि कर ली जाये । यह देखने के लिये कि मनिपुर वाले संधि के लिये राजी हैं या नहीं, रेज़िडेन्सी की चहारदिवारी के ऊपर से लड़ाई की बन्दी की सूचना स्वरूप बिगुल बजवाया । युवराज टिकेन्द्रजित सिंह के कानों में भी आवाज़ पहुंची । उन्होंने किले के अन्दर से अपनी सेना को लड़ाई बन्द करने की आज्ञा दी । तुरन्त ही लड़ाई रुक गयी । लड़ाई बन्द होने से अंग्रेजो की जान में जान आयी । अंग्रेज और गोर्खे सिपाही मनिपुर वालों के इस सद्ववहार की प्रशंसा करने लगे । चीफ कमिश्नर मि. किन्टन ने महाराज कुलचन्द्र को लिखा:- “आप किस शर्त पर हमारे ऊपर गोले बरसाने बन्द कर सकते हैं ? क्या आप हमें कटे हुए तारों को ठीक करने और बड़े लाट साहब को तार भेजने का अवसर प्रदान करेंगे ?”

यह पत्र महाराज के पास भेजा गया और इधर रेज़िडेन्सी में मि. किएटन, पोलिटिकल एजेण्ट मि. प्रिमउड और सेनाध्यक्ष कर्नल स्कीन में परामर्श होने लगा, कि इस विराम का लाभ उठाते हुए हम लोग यहां से किसी सुरक्षित स्थान में भाग चलें, नहीं तो सम्भव है, कोई नयी आफत खड़ी हो जाये ।

ये लोग बातचीत कर ही रहे थे, कि इतने में महाराज का एक सिपाही उत्तर लिये आया, और जिसे मि. प्रिमउड ने इस प्रकार सुनाया था, आप लोगों के साथ झगड़ा-लड़ाई करने की हमारी तनिक भी इच्छा नहीं थी; परन्तु आपके पक्ष से ही पहले ये आक्रमण किया गया । यदि आप शस्त्र त्याग दें, तो हम सन्धि करने के लिये तैयार हैं ।”

उन लोगों ने पत्र-वाहक से पूछा, – ‘क्या इस समय युवराज से भेंट हो सकती है ?” पत्रवाहक -“हाँ, जरूर हो सकती है।”

मि. प्रिमउड के उत्साहित करने पर रात के साढे आठ बजे मि. किएटन,कर्नल स्कीन, प्रिमउंड, सिमसन, कासिन्स और एक बिगुलची रवाना हुए । राजपुरी में पहुँचने पर युवराज से उनकी भेट हुई। आधे घण्टे तक बाते चली । पर युवराज टिकेन्द्रजित ने कहा,-“आप लोगों के व्यवहार से हम लोग बहुत ही डर गये हैं । जब तक आप लोग अपने अस्त्र-शस्त्र बिल्कुल ही न त्याग देंगे, तब तक आपके सिर्फ ज़बानी जमा-खर्च से हमारा विश्वास आप पर कदापि नहीं हो सकता।”

यह शर्त अंग्रेजो को अपमान-जनक मालूम हुई । वे लोग उठ कर जाने के लिये तैयार हुए । मि. किएटन,ने कहा,-“कल सबेरे फिर एक दरबार होगा ।” इसके बाद वे सब जाने लगे। पर इस समय मनिपुर की जनता और सेना अंग्रेजो पर बेतरह बिगड़ी थी । युवराज ने सेनापति को उनके साथ कर दिया, कि “उन्हें पहुँचा आओ; कोई गाल-माल न होने पाये । पर जब वे बाहर निकल रहे थे, तब किसी उद्धत सिपाही ने लेफ्टिनेए्ट सिमसन को तलवार खींच कर मारी । एक सिपाही ने मि. ग्रिमउड को ऐसा भाला मारा, कि वे वहीं गिर कर ढेर हो गये। चारों ओर से “मारो-मारो” की आवाज़ों आने लगीं । उंद्धत जनता ने बड़ा ही उग्र रूप धारण किया था । अंग्रेजो की रक्षा का कोई उपाय न देख कर एक जमादार ने उन्हें एक कमरे में ले जा कर बन्द कर दिया । लोगों का हल्ला-गुल्ला सुनकर युवराज टिकेन्द्रजितसिंह स्वय वहाँ पहुँच गये । उन्होंने अंग्रेजो को रक्षा का भार एक विश्वत सेनापति अङ्गये मिंगतो को दिया । यह सब प्रबंध करके युवराज सोने चले गये ।

किन्तु इसके बाद मनिपुर के पुराने वृद्ध सेनापति जेनरल थेंगाल भी वहाँ पहुँच गये। वे अँगरेज़ों के दुरव्यव्हार से बड़े ही असन्तुष्ट थे । उन्होंने उन पाँचों अंग्रेजो को मार डालने की आज्ञा दे दी, जो एक कमरे में बन्द कर दिये गये थे । जनरल थंगाल के आज्ञानुसार सन्तरियों ने उन पॉचों अंग्रेजो को बाहर निकाला। जल्लाद ने पहुँच कर चीफ कमिश्नर मि. क्विटन और अन्य चार अंग्रेजो की गर्दने काट डालीं । उनकी लाशे गद्ढे में गाड़ दी गयीं और सबने बड़ी खुशी मनायी ।

रात के जब एक बज गये और मि. क्विटन आदि न आये, तो इधर रेज़िडेन्सी में बचे हुए अंग्रेज घबराने लगे । उन्होंने समझा, कि वे शायद क़े कैद कर लिये गये । उन्मत्त जनता का शोर-गुल सुनकर इन अंगेजो ने देखा, कि अब खैरियत नहीं है। वे भयमीत होकर काँपने लगे । फिर उन्होंने वहां से भागने का निश्चय किया, और वे कुछ गोरे सैनिको के साथ भागे । उनके साथ प्रिमउड की स्त्री भी थी, जो वहा के बहुत से मार्ग जानती थी । इसी स्त्री के नेतृत्व में सब अंग्रेज दुर्गम-मार्ग से भागने लगे । कई दिनों तक राह चलते रहे; पर दुर्गेम पहाड़ी जंगलों का कहीं अन्त न होता था। कितने गोरखे और अंग्रेज तो भूख प्यास से तड़प-तड़प कर मर गये । आगे चलकर उन्हें एक अंग्रेजी सेना आती हुई दिखाई दी । इससे उनकी रक्षा हुई ।

इसके बाद भारत सरकार को यह सब कांड जब मालूम हुआ, तो तीन तरफ से बड़ी-बड़ी सेनाए तोपों सहित मनिपुर पर आक्रमण करने के लिये भेजी गयीं, मनिपुरियों से उनकी दो लड़ाइयाँ भी हुई । जिनमें मनिपुरी हारे । महाराज कुलचन्द्र और युवराज टिकेन्द्रजित सिंह का हाथ न अंग्रेजो की हत्या कराने में था, और न अब वे अंग्रेजो की सेना का मुकाबला करने में समर्थ थे । उन्होंने भागना ही उचित समझा, पर बूढ़ा थंगाल जनरल अंग्रेजो से युद्ध करने के लिये तैयार था । मनिपुर की प्रजा भी युद्ध करने के लिये महाराज से आग्रह करने लगी, परन्तु महाराज या युवराज किसी तरह भी अंग्रेजो से लड़ना नहीं चाहते थे । अन्त मे महाराज युवराज और उनके समस्त भक्तगण कूकियों के एक गाँव में चले गये ।

इधर जब प्रचण्ड अंग्रेजी सेना राजधानी में पहुँची, तो राजमहल सूने पड़े थे । राजधानी में १०-१५ मनुष्यों से अधिक कोई नहीं था । सारी राजधानी सूनसान पड़ी थी । अंग्रेज अफसर महलों में रहने लगे और महाराज आदि का पता लगाने लगे। अंग्रेज रिश्वत देकर आदमियों को मिलाना तो खूब जानते ही हैं, उन्होंने धन के लोभ से बहुत से मनिपुरनिवासियों को बुलाया । इनमें से एक आदमी ने वह गड्ढा दिखा दिया, जिसमें मि. किएटन और मि. प्रिमउड आदि की सड़ी हुई लाशें पड़ी थीं । लाशों से दुर्गन्ध आ रही थी । अपने स्वजातीय भाइयों की सड़ी हुई लाशे देखकर अंग्रेज सेनापतियों को बड़ा क्रोध चढ़ा । उन्होंने घोषणा कर दी,कि-“महाराज कुलचन्द्र अब मनिपुर के राजा नहीं हैं । जो कोई महाराज, युवराज और थंगाल जनरल आदि को पकड़वा देगा, उसे हज़ारों रुपये इनाम दिये जायेगे।”

विश्वासघातियों की कमी इस देश में नहीं है । कई आदमियों ने महाराज और युवराज का गुप्त स्थान बता दिया । फिर क्या था ? महाराज, युवराज,थंगाल जनरल आदि सब गिरफ्तार किये गये । सन् १८९१ ई० में टिकेन्द्रजित सिंह युवराज और वूढ़े जनरल पर कार्यवाही आरम्भ हुआ । १०वीं तारीख को अंग्रेजी अदालत ने उन्हें फॉसी की आज्ञा सुना दी । युवराज टिकेन्द्रजित सिंह और बूढ़े थंगाल जेनरल फॉसी दे दी गयी । महाराज कुलचन्द्र और उनके छोटे भाई अङ्गय सेना का आजन्म निर्वासन किया गया । इसके साथ ही मनिपुर की स्वतन्त्रता भी जाती रही ।

जिस दिन युवराज टिकेन्द्रजित सिंह को फॉसी दी गयी, उसी दिन बड़े लाट लेन्सडाडन ने मनिपुर की भावी भाग्य-लिपि का मसविदा भारत-मंत्री की अनुमति से तैयार कर डाला । मनिपुर के राज सिंहासन पर राजवंश का एक दूर का सम्बन्धी बालक चुडाचन्द्र बैठाया गया । आपको यह जान कर दुखदायी आश्चर्य होगा, कि स्वर्गीय टिकेन्द्रजित सिंह की विधवा रानी मथुरा- वृंदावन में रहती थी । वे अब वृद्धावस्था में आँख से अन्धी भी हो गयी थी ।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *