Kapalik Sadhu | Kapalika Aghori | कापालिक बाबा | कापालिक साधना

Kapalik Sadhu

Kapalik Sadhu : घोर अंधकारमयी रात्रि । चारों ओर फैली एक अबूझ सी खिन्नता। निस्तब्ध वातावरण। साँय-साँय करते वातावरण में स्वर्णरेखा नदी की धारा का गम्भीर गर्जन भर सुनाई दे रहा था। बादलों से अटा आकाश काला पड़ गया था। उद्दाम हवा की लय पर नदी के किनारे खड़े पीपल और बरगद के पेड़ झूम रहे थे। गहन निःश्वास जैसी हवा हाहाकार करती कुशों की घनी झाड़ियों को कँपाये दे रही थी।

थोड़ी देर पहले झींगुरों की झंकार भी सुनाई दे रही थी, मगर उस घने अँधियारे के बीच सहसा बोल हरि  …हरि बोल’ की दहशतभरी आवाज ने उस अनवरत क्रन्दन का भी गला घोंट दिया। बोल हरि आवाज धीरे-धीरे नजदीक होती जा रही थी। बाँस के झुरमुटों के बीच की पगडण्डी पर सहसा आठ-दस व्यक्ति प्रकट हुए। वे खाट पर किसी मृत व्यक्ति का शव लिए हुए थे। उनमें से एक व्यक्ति हाथ में लालटेन लिए हुए आगे-आगे चल रहा था।

नदी के किनारे श्मशान-भूमि में खाट उतार कर नीचे रख दी गयी। शव पर एक कीमती दुशाला पड़ा था, जिसे एक व्यक्ति ने उठा कर अपने बगल में दबा लिया। शायद उसने सोचा था कि इतना मूल्यवान दुशाला शव के साथ नहीं जलना चाहिए। फिर उसने आवाज दी, ‘राधावल्लभ, ओ राधावल्लभ !’

‘जी सरकार’, राधावल्लभ बोला।

जल्दी चिता की तैयारी करो। सबेरा होने के पहले वापस लौटना है। हवेली के लोग इन्तजार करेंगे।

तभी पीपल की किसी डाल पर बैठा कोई मांसखोर पक्षी कर्कश स्वर में चीख “चें “चख पड़ा- चें “चख ।

कुछ देर बाद नदी के किनारे चिता तैयार हो गयी और उस पर शव को रख दिया गया। उसके बाद सनई की लकड़ी पर आग लिए हुए राधावल्लभ आगे बढ़ा और उसे चिता के भीतर रख दिया। फिर काले-सफेद धुयें का एक गुबार उठा और देखते-ही-देखते चिता धधक उठी।

शव-यात्रा में आये लोग इत्मीनान से जाकर बरगद के पेड़ के नीचे बैठ गये। उनमें से कुछ तो बीड़ी सुलगा कर पीने लगे और बाकी लोग आपस में गप-शप करने लगे।

सहसा हवा का वेग तीव्र हो उठा। बादल भी बुरी तरह गरजने लगे। शायद आकाश के वक्ष को जलाती हुई बिजली एक बार चमकी और उसी के साथ भयंकर रूप से बारिश होने लगी।

जब बरसात बन्द हुई और लोग चिता के पास आयें तो देखते क्या हैं कि चिता बुझ चुकी है और उस पर शव नहीं है।

आखिर शव गया कहाँ ?

सभी लोगों का मन दहशत से भर उठा। वे भयमिश्रित दृष्टि से एक-दूसरे की ओर देखने लगे। अजीब-सी डरावनी घटना थी वह। राधावल्लभ तो भय से काँपने लगा। उसके हाथ से छूट कर लालटेन धप् से जमीन पर गिर पड़ी और बुझ गयी। उन लोगों का मुखिया निमाई इस घटना को प्रेत-लीला समझ कर पागलों की तरह चीखता-चिल्लाता हुआ सड़क की ओर भागा। उसके साथी भी भूत-भूत चिल्लाते हुए उसके पीछे भाग निकले।

यह घटना अगस्त सन् १९३१ की है।

जिस व्यक्ति का शव रहस्यमय ढंग से गायब हुआ था, वह पश्चिम बंगाल के प्रसिद्ध और धनी जमींदार गोपालचन्द्र राय चौधरी की कुल-परम्परा के अन्तिम दीपक मोहनचन्द्र राय चौधरी का था। उसकी आयु बीस-बाईस वर्ष के लगभग थी। चार मास पूर्व उसकी शादी बंगाल के मल्लिका स्टेट के जमींदार की इकलौती पुत्री भुवनमोहिनी के साथ हुई थी। लोगों की नजर में मोहनचन्द्र की मृत्यु कालरा से हुई थी, मगर वास्तविकता कुछ और ही थी।

निमाई ने हाँफते हुए जब रानी मधुमुखी को रहस्यमय ढंग से शव गायब होने की सूचना दी तो उनको भी कम आश्चर्य नहीं हुआ। पर अन्त में उन्होंने यही समझा कि निश्चय ही शव चिता से सरक कर स्वर्णरेखा नदी की प्रखर धारा में बह गया होगा।

गोपालचन्द्र राय चौधरी के पास काफी चल-अचल सम्पत्ति थी। राय चौधरी बहुत ही उदार और सात्विक विचार के व्यक्ति थे। उनकी विशाल हवेली में हर वर्ष काफी धूम-धाम से दुर्गा-पूजा और काली-पूजा का समारोह मनाया जाता रहा था। उस अवसर पर ब्राह्मणों को भोजन तो कराया ही जाता था, इसके अलावा पूरी जमींदारी से मिठाई बाँटी जाती थी। गरीबों के लिए तो गोपालचन्द्र राय चौधरी साक्षात् परमेश्वर ही थे।

उस दानवीर और उदार जमींदार को गाँव के सभी लोग बहुत चाहते थे। राय चौधरी की पत्नी सर्वमंगला देवी भी पति की ही तरह शीलवती, दानी, उदार, मिलनसार और सच्चरित्र थी। गाँव के लोग उनको रानी माँ कहते थे।

वैभव की कमी नहीं थी। पति-पत्नी सुख-शान्ति से जीवन व्यतीत कर रहे थे। फिर भी उनके सुख में एक भारी कमी थी। बिना सन्तान के वे हमेशा दुःखी रहते थे। यज्ञ-योग, पूजन-हवन, व्रत-मनौती आदि कितने ही उपाय किये मगर व्यर्थ । सफलता नहीं मिली। फिर भी निराश नहीं हुए पति-पत्नी। दुर्गा-पूजा समारोह खत्म हो चुका था। प्रतिवर्ष की भाँति दीपावली की काली पूजा की तैयारियाँ धूम-धाम से हो रही थीं |

सांझ का समय था गोपालचन्द्र राय चोंधरी अपने बैठकखाने मे गद्दी पर तकिया के सहारे बैठे कुछ सोच-विचार में मग्न थे तभी हवेली के फाटक पर डमरू की डम् डम् ध्वनि के साथ ‘हर हर महादेव, शिवशंकर की जै’, की आवाज सुनाई पड़ी।

फाटक के सामने हाथ में डमरू और त्रिशूल लिये रौद्ररूपधारी एक व्यक्ति खड़ा था। उसके लम्बे-चौड़े शरीर में भस्म पुता हुआ था। मस्तक पर त्रिपुण्ड लगा था। सिर पर जटाजूट, गले में नर-मुण्ड के साथ स्फटिक और मूँगे की मालाएँ, कमर में मृगचर्म। उस रौद्ररूपधारी की आँखें शराब के नशे के कारण लाल हो रही थीं।

आवाज सुनकर गोपालचन्द्र राय चौधरी चादर सँभालते हुए लपक कर फाटक पर आये और दोनों हाथ जोड़ कर उन्होंने विनम्र भाव से प्रणाम किया।

‘मैं अवधूतेश्वर कापालिक हूँ। कामरूप के महाश्मशान से चल कर आया हूँ। मुझे तुम्हारी सेवा की आवश्यकता है।’– रौद्ररूपधारी ने गम्भीर गरजती हुई आवाज में कहा।

राय चौधरी ने बड़ी श्रद्धा से कापालिक को हवेली के भीतर ले जाकर एक ऊँचे आसन पर बैठाया।

आतिथ्य स्वीकार करने के पश्चात् कापालिक सन्तान के अभाव में पति-पत्नी को उदास देखकर बोला, ‘सन्तान के लिए भगवती शिव-शिवा काली की पाषाण प्रतिमा की प्राण-प्रतिष्ठा करनी होगी, तभी सफलता मिलेगी।’

‘आपकी जैसी इच्छा महाराज।’ राय चौधरी विनम्र स्वर में बोले। दूसरे ही दिन माँ काली के नाम हवेली से सटी दो एकड़ भूमि संकल्प कर उत्सर्ग कर दी गई।

कापालिक अवधूतेश्वर ने पाँच काले बकरों की बलि देकर भूमि का शोधन किया और दीपावली की महानिशा बेला में पंचमुण्डी की आसन पर भैसों की बलि देकर अपने हाथों से माँ भवतारिणी शिव-शिवा काली की पाषाण-प्रतिमा की स्थापना की। इस शुभ अवसर पर हजारों ब्राह्मणों और गरीबों को अन्न-वस्त्र दान किया गया। भोजन कराया गया और रुपये बाँटे गये।

संयोग की बात, उसी दिन रानी सर्वमंगला गर्भवती हो गयीं। जब यह समाचार गोपालचन्द्र राय चौधरी को मिला तो उनकी प्रसन्नता की सीमा न रही। उन्होंने माँ काली का भव्य और विशाल मन्दिर और तालाब बनवाना शुरू कर दिया। थोड़े ही दिनों में मन्दिर और उसके सामने विशाल सरोवर बन कर तैयार हो गया। शेष भूमि में जामुन, पाकड़, अमरूद, केला आदि के अलावा जवा, कुन्द, रातरानी, कृष्णचूड़ा आदि फूलों के वृक्ष भी लगा दिये गये। कापालिक ने मन्दिर के प्रांगण में अपनी धूनी रमा ली। कमी तो किसी बात की थी नहीं। दिन-रात शराब के नशे में माँ-माँ कहता रहता वह।

रानी सर्वमाँगला बराबर उसकी सेवा में लगी रहती। ठीक समय पर उन्होंने एक स्वस्थ और सुन्दर बालक को जन्म दिया। पुत्रजन्म के अवसर पर पूरी जमींदारी में मिठाई बाँटी गई। उस दिन का समारोह विलक्षण था। कापालिक का तो ऐसा सम्मान किया गया कि उदाहरण ही नहीं मिलेगा, मगर जब उसने नवजात शिशु को देखा तो उसके चेहरे पर व्यथा के भाव उभर आये। थोड़ी देर तक आकाश की ओर अपलक निहारने के बाद गम्भीर स्वर में कहा- ‘बालक को माता का सुख नहीं है। बीस वर्ष के बाद बालक को प्राण-भातक योग है, मगर मैं उसकी रक्षा करूँगा।’

भविष्यवाणी सुनकर राय चौधरी काफी दुःखी हुए, मगर कापालिक के अन्तिम शब्दों से उनको कुछ शान्ति मिली। बालक का नाम रखा गया मोहनचन्द्र ।

कापालिक की भविष्यवाणी सत्य सिद्ध हुई। मोहनचन्द्र के जन्म के तीन साल बाद रानी सर्वमंगला चल बसी। पत्नी के वियोग में गोपालचन्द्र राय चौधरी विक्षिप्त हो उठे उनके दुःख की कोई सीमा नहीं थी।

कापालिक अवधूतेश्वर भविष्यवाणी करने के बाद वहाँ नहीं ठहरा था। एक रात बिना किसी को कुछ बतलाये वह न जाने कहाँ चला गया। राय चौधरी ने काफी खोज की मगर वह नहीं मिला।

गोपालचन्द्र राय चौधरी की दूसरी शादी करने की इच्छा नहीं थी, लेकिन मोहन की देखभाल ठीक से हो और उसको मातृस्नेह मिले, इसलिए वे दूसरी शादी के लिए तैयार हो गये। उस समय उनकी उम्र ५० वर्ष के करीब थी। सर्वमंगला की ही एक ममेरी बहन थी-नाम था मधुमुखी । २०-२२ वर्ष की युवती थी वह। रूप-रंग साधारण ही था, मगर उसका स्वभाव घमण्डी, उदण्ड, ईर्ष्यालु और क्रोधी था। सर्वमंगला से कोई समानता नहीं थी उसकी।

साधारण तौर पर गोपालचन्द्र राय चौधरी की शादी मधुमुखी से हो गयी। हवेली मे आते ही उसने घर और जमींदारी का सारा कारोबार अपने हाथों में ले लिया। मोहनचन्द्र से तो वह बहुत ही नफरत करती थी। राय चौधरी ने जो सोच-समझ कर शादी की थी, उसके ठीक विपरीत हो गया।

मोहन के प्रति मधुमुखी पूरी तरह सौतेली माँ की भूमिका निभाने लगी। दो साल बाद उसे भी एक पुत्र हुआ, जिसका नाम कृष्णचन्द्र रखा गया। अब तो वह मोहन से और अधिक घृणा करने लगी। वह चाहती थी कि सारी चल-अचल सम्पत्ति का मालिक उसका ही बेटा बने। मोहन की चिन्ता के कारण राय चौधरी की तबीयत बराबर खराब रहने लगी। आखिर उन्हें तपेदिक हो गया और अन्त तक उसी रोग ने उनकी जान ले ली।

उस समय मोहनचन्द्र की उम्र २० वर्ष की थी। पिता की मृत्यु से वह एकबारगी इतास निराश हो गया ओर हमेशा गुमसुम रहने लगा | चुपचाप कमरे मे मौन साधे पड़ा रहता। उसके मामा से उसकी यह हालत नहीं देखी गयी। उन्होंने मधुमुखी पर दबाव डाल कर भुवनमोहिनी से उसका विवाह करा दिया।

भुवनमोहिनी एक सीधी, सरल और शान्त स्वभाव की युवती थी। अपनी सौतेली सास का छल-कपट वह नहीं समझती थी। दूसरी ओर उसके आ जाने से मधुमुखी का स्वभाव और अधिक उग्र हो गया। कारोबार तो उसके हाथों में था ही, अब उसने अपने भाई रमेश को मैनेजर नियुक्त कर दिया। रमेश व्यभिचारी, दुष्ट और ऐयाशी मिजाज का व्यक्ति था। आते ही वह सब पर अपनी हुकूमत चलाने लगा। वह अपनी बहन को भी दबाव में रखता था। मधुमुखी उसके सामने भीगी बिल्ली बनी रहती। इसका भी एक कारण था। राय चौधरी की मृत्यु के बाद वह शराब पीने लगी थी। गाँव का मुखिया निमाई शहर से उसके लिए शराब की बोतलें ले आता था। किसी और को इस बात का पता नहीं चलता था।

निमाई स्वस्थ और आकर्षक युवक था, साथ ही काफी चालाक भी था। वह कई घाटों का पानी पीने के बाद गाँव वापस लौटा था। परिवार में अकेला ही था। धीरे-धीरे अपनी धूर्त बुद्धि से वह एक दिन गाँव का मुखिया बन बैठा। उसने राय चौधरी के मन को भी मोह लिया था। फिर क्या था, हवेली में भी आना-जाना शुरू हो गया। राय चौधरी इस पर बहुत विश्वास करते थे। कभी-कभी वह उससे व्यक्तिगत मामलों में सलाह-मशविरा भी लेने लगे।

उनकी मृत्यु के बाद निमाई ने अपना जाल मधुमुखी पर फेंका और इसमें सफल भी हो गया वह। न जाने कैसे उसने मधुमुखी को शराब का चस्का लगा दिया, फिर वह कुछ ही दिनों में इसकी आदी हो गयी। फिर हमेशा शराब के नशे में डूबी रहने लगी और एक रात उसी शराब के नशे में निमाई के साथ उसका शारीरिक संबंध स्थापित हो गया।

निमाई तो यही चाहता ही था। अब उसकी हर रात मधुमुखी के साथ रंगीन होने लगी। मगर एक रात रमेश ने दोनों को शराब के नशे में बेसुध सहवास करते हुए देख लिया। मधुमुखी निमाई के चंगुल में फँसी ही थी, अब उस पर भाई का भी शासन हो गया।

गोपालचन्द्र राय चौधरी काफी दूरदर्शी थे। अपनी वसीयत में उन्होंने मोहन को अपनी सम्पूर्ण जमीन-जायदाद का मालिक बनाया था और मधुमुखी एवं उसके बेटे के लिए मासिक वेतन मात्र निश्चित किया गया था। यह रहस्य किसी को नहीं मालूम था। मृत्यु के समय राय चौधरी मोहन से मिलना चाहते थे, मगर मधुमुखी ने नहीं मिलने दिया था। अपने पिता की मौत की खबर उसे कलकत्ता में मिली थी। वह असीम दुःख में डूब गया। पिता का अन्तिम दर्शन भी उसको दुर्लभ रहा। उसको लगा था कि अब वह पूर्णतः अनाथ हो गया।

मधुमुखी निमाई और रमेश के हाथों कठपुतली बन गयी थी। जब उसको राय चौधरी के वकील से वसीयत के बारे में मालूम हुआ तो एकबारगी क्रोध से विफर उठी वह उसने वकील को विवश किया कि वह उस वसीयत को नष्ट कर दें, लेकिन वकील नेक और ईमानदार व्यक्ति था। उसने असली वसीयत तो अपने पास सुरक्षित रख ली और उसकी एक नकल बना कर मधुमुखी को दिखाने के लिए उसके सामने उसे जला दिया। उस खुशी में मधुमुखी ने वकील को १० हजार रुपये पुरस्कार के रूप में दिये थे। अब उसे मोहन को रास्ते से हटाना था। इसके लिए मधुमुखी, निमाई और रमेश के बीच गुप्त रूप से सलाह-मशविरा हुआ, फिर तीनों ने मिलकर षड्यंत्र रचना शुरू कर दिया।

पहले भुवनमोहिनी को उसके मायके भेज दिया गया, फिर एक दिन मोहन को न जाने कौन सा.. शर्बत पिलाया गया कि कालरा की स्थिति पैदा हो गयी।

रात का समय था। फौरन डॉक्टर को बुलाया गया। मोहन की हालत देख कर डॉक्टर तुरन्त समझ गया कि उसे जहर दिया गया है। मगर मधुमुखी ने १० हजार रुपये देकर डॉक्टर को अपने वश में कर लिया और उसने कालरा होने का प्रमाणपत्र दे दिया। रात का पहला पहर बीतते-बीतते मोहनचन्द्र की मृत्यु हो गयी। तुरन्त उसके शव को श्मशान ले जाने का इन्तजाम किया गया। इसके बाद की कथा आप पहले ही पढ़ चुके हैं।

लेकिन मोहन मरा नहीं था। वास्तव में वह तब भी जीवित था। उसके शरीर में कहीं प्राण शेष थे। हवा और पानी के स्पर्श से वह चेत में आ गया। जब उसकी चेतना लौटी तो उसने अपने आपको नदी के किनारे बाँस की झाड़ी में फैसा पाया। फिर वह जोर-जोर से चिल्लाने लगा-‘बचाओ” “बचाओ”

संयोग ही समझिये इसे। श्मशान के निकट एक शिव मन्दिर में उस समय शव पर बैठ कर कापालिक अवधूतेश्वर कोई मंत्र जागृत कर रहा था। आवाज सुनकर वह मोहनचन्द्र के पास आया। पहचानने में देर नहीं लगी उसे। वह योगबल से सारी स्थिति समझ गया। मोहन को साथ लेकर वह सीधा हिमालय चला गया। जहर के कारण मोहन की मृत्यु तो नहीं हुई, लेकिन उसके मस्तिष्क पर उसका भयंकर असर हुआ। पूर्व-स्मृति लुप्त हो गयी। इससे कापालिक एक प्रकार से प्रसन्न ही हुआ।

हिमालय के अनेक गुप्त रहस्यमय स्थानों में रहकर मोहन ने कापालिक के बतलाये हुए साधना-मार्ग पर चलते हुए कई तांत्रिक साधनाएँ कीं। वह पूरे दस वर्ष तक कापालिक के साथ हिमालय की गोद में रहा। इस अवधि में उसने कई अमोघ और दुर्लभ सिद्धियाँ तो प्राप्त की थीं, इसके अलावा नियमित रूप से कसरत और पहाड़ी औषधियों से वह काफी स्वस्थ और शक्तिशाली भी हो गया। तांत्रिक साधना और औषधियों के मिले-जुले प्रभाव से उसका चेहरा सोने की तरह चमकने लगा था। आँखों में एक अजीब-सी शान्ति छलकने लगी। ऐसा लगता जैसे उसने जिन्दगी की गहराई को समझ लिया हो।

एक बार वह अपने गुरु कापालिक के साथ मानसरोवर की ओर जा रहा था। न जाने कैसे एकाएक बर्फ पर उसका पैर फिसला और वह एकदम ५०-६० फुट नीचे जा गिरा। सिर में गहरी चोट लगी थी। घण्टों बेहोश पड़ा रहा और जब फिर चेतना लौटी तो वह एकबार चीख उठा भुवन भुवनमोहिनी |

सिर में लगी चोट के कारण मोहन की पूर्व-स्मृति वापस लौट आयी थी। यह विस्मयकारी घटना थी। उसने कापालिक से पूछा- हम अपने गाँव कब जायेंगे।’

‘अब समय आ गया है।’-गम्भीर स्वर में कापालिक बोला और उसने मोहन को उसके जन्म के पूर्व से लेकर अब तक की सारी घटनायें सुना डाली। उस समय मोहन की उम्र ३२ वर्ष की थी। लम्बी दाढ़ी और सिर पर कापालिक की तरह जटा-जूट था- बिल्कुल साधु का वेश बन गया था उसका।

उसी वेश-भूषा में कापालिक उसे लेकर गाँव पहुँचा, लेकिन वहाँ की स्थिति कुछ और ही थी। पिछले दस वर्षों में काफी परिवर्तन हो गया था। सर्प के काटने से निमाई की मृत्यु हो चुकी थी। अधिक शराब और ऐयाशी के कारण मधुमुखी पूर्ण रूप से विक्षिप्त हो गयी थी। उसके बाल सफेद हो गये थे और आँखें धँस गयी थीं। गालों की हड्डियाँ उभर आयी थीं। वह हमेशा पागलों की तरह प्रलाप करती रहती।

मधुमुखी की इस अवस्था का फायदा उठा कर रमेश पूरी जमींदारी का मालिक बन बैठा था और बिना किसी रोक-टोक के दोनों हाथ से सुरा-सुन्दरी की उपासना में धन लुटा रहा था। गाँव वाले रमेश के अनाचारों से त्रस्त हो उठे थे। जब रमेश को पता चला कि कापालिक के साथ मोहनचन्द्र आया है तो उसने पहचानने से एकदम इन्कार कर दिया।

कापालिक और मोहन शिव-शिवा मन्दिर में ठहरे हुए थे। जब गाँव वालों को मालूम हुआ कि छोटे सरकार लौट आये हैं तो सभी को आश्चर्य हुआ। उन्हें देखने के लिए मन्दिर पर भीड़ जुटने लगी। मगर किसी ने मोहन को पहचाना नहीं। उसका रूप-रंग और उसकी वेश-भूषा ही कुछ ऐसी थी कि कोई पहचानता कैसे। परिस्थिति विपरीत देखकर कापालिक सीधा वकील के पास पहुँचा और उसे मोहन के बारे में विस्तार से सब कुछ बता दिया। वकील ने जब मोहन की छाती पर रेखांकित सर्पाकृति देखी, तो उसे विश्वास हो गया। यह सर्पाकृति कुलपरम्परा के अनुसार ही मोहनचन्द्र की छाती पर अंकित की गई थी।

असली वसीयत वकील के पास सुरक्षित तो था ही। वकील ने तुरंत अदालत कार्रवाई की। अदालत की ओर से नोटिस मिलते ही रमेश एक रात चुपचाप खिसक गया। वकील ने गाँव वालों को एकत्र करके सारी स्थिति स्पष्ट की, फिर तो पूरे गाँव में खुशी की लहर फैल गयी। सब अपने छोटे सरकार का स्वागत-सत्कार करने में जुट गये।

मगर जब मोहनचंद्र को वकील के जरिये यह मालूम हुआ कि उसकी मृत्यु का   समाचार सुनकर भुवनमोहिनी ने शिव-शिवा के सामने छाती में छुरा भोंक कर आत्महत्या कर ली, तो बिलख उठा वह। लगातार कई दिनों तक मन्दिर के पट भीतर से बंद करके पड़ रहा। कापालिक ने बहुत समझाया मगर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। उसने विगलित कण्ठ वे सिर्फ इतना ही कहा-‘जब मेरी जीवनसंगिनी ही नहीं रही तो यह सारा वैभव लेकर मै क्या करूंगा। अब वेश-भूषा भी बदलने की आवश्यकता नहीं है।’

उसके चित्त में एकाएक वैराग्य उत्पन्न हो गया।

काली-पूजा के अवसर पर मोहन ने अपनी पत्नी की स्मृति में शिव-शिवा मन्दिर के प्रांगण में संगमरमर की एक समाधि बनवाई फिर बड़ी धूम-धाम से काली पूजा का समारोह मनाया और उसी शुभ अवसर पर बाकायदा लिखा-पढ़ी करके पूरी जमींदारी अपने सौतेले भाई कृष्णमोहन राय चौधरी को अर्पित कर दी।

इसके बाद एक दिन भी नहीं रुका वह। अपने गुरु के साथ धीरे-धीरे पग उठाता हुआ चल पड़ा गाँव की पगडण्डी पर। गाँव के बाल-वृद्ध, स्त्री-पुरुष सबकी आँखें गीली थी उस समय। सब अपने छोटे सरकार को सजल आँखों अवरुद्ध कण्ट से विदा कर रहे थे। सड़क पर पहुँचकर मोहन ने सिर घुमाकर एक बार हवेली की ओर देखा, फिर घूम कर द्रुतगति से आगे बढ़ गया।

मैं स्तब्ध बैठा उस साधु के मुँह से यह कहानी सुन रहा था। रात गहरी हो गयी थी। हरिश्चन्द्र घाट पर सन्नाटा छा गया था। श्मशान में जलती हुई चिता बुझ चुकी थी मैंने जेब से सिगरेट निकाली और उसे सुलगा कर सामने बैठे उस जटा-जूटधारी नंग-धड़ंग तांत्रिक की ओर देखा—उस समय वह आकाश की ओर शून्य में अपलक निहार रहा था। उसके चेहरे पर गहरी उदासी थी।

मैंने जिज्ञासावश पूछा—’आपको यह सारी कथा कैसे मालूम हुई।’ मेरा प्रश्न सुनकर तांत्रिक ने सिर घुमाया। मेरी ओर एक बार गहरी नजरों से देखा, फिर बोला- ‘मैं ही मोहनचन्द्र राय चौधरी हूँ।’

‘ऐं! आप ही हैं।’ आश्चर्य से मेरी आँखें फैल गयीं।

वह अचानक अपनी जगह से उठा और जल्दी-जल्दी पैर बढ़ाता हुआ अँधेरे में विलीन हो गया।

उस समय मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा, जब मैंने सुना कि वह साधु और कोई नहीं, गुप्त योगी और सिद्ध समाज में प्रसिद्ध ‘डमरूबाबा’ थे। पिछले कई वर्षों से मैं डमरूबाबा की अमोघ सिद्धि और चमत्कारों के बारे में सुनता आ रहा था। मैंने इतना भी सुन रखा था कि दशाश्वमेध के आस-पास ही वह कहीं गुप्त रूप से रहते हैं। किसी से मिलते-जुलते नहीं और न तो बाहर ही निकलते हैं अपने कमरे से। साधारण लोग तो उनको पहचानते तक नहीं हैं, उनका नाम सभी जानते हैं। उनसे मिलने वाले वही लोग हैं जी योगी या गहरे तांत्रिक हैं।

इस प्रकार डमरूबाबा का सहसा दर्शन होगा, उनसे बाते होगी ओर उन्ही उनके के मुख़ से उनके जीवन की दारुण कथा भी सुनने को मिलेगी-इसकी स्वप्न में भी कल्पना नहीं की थी मैंने। उसके बाद मैंने उनकी काफी खोज-बीन की मगर फिर वह नहीं मिलें। आखिर मैं निराश हो गया। काफी लम्बे अरसे के बाद एक दिन दशाश्वमेध घाट की ओर जाते समय अचानक मेरी दृष्टि एक जीर्ण-शीर्ण मकान की खुली खिड़की के भीतर पहुँच गई। मैं एकदम अचकचा गया। कमरे में डमरूबाबा बैठे थे। उनकी भी दृष्टि मुझ पर पड़ी, मैं भीतर चला गया। वहाँ गहरा अँधेरा था। कमरे में तीन वृद्धा औरतें बैठीं पत्तल पर भात और मछली खा रही थीं। बाबा ने बतलाया-‘ये तीनों डाकिनी, हाकिनी और शाकिनी हैं।’

मैंने देखा-भात खाने के बाद बैठी-ही-बैठी तीनों औरतें अपनी जगह से गायब हो गयीं। मैं स्तब्ध रह गया।

बाबा ने कहा—’ये तीनों भैरवियाँ आकाश मार्ग से आती हैं। तीनों काफी शक्तिशालिनी हैं।’

फिर तंत्र-मंत्र पर घण्टों बाबा से बातें होती रहीं। अन्त में, अनुरोध भरे स्वरों में बोले—’मेरी स्थिति का आभास किसी को लगना नहीं चाहिए। इसका खयाल रखना।’

जब चलने लगा तो आँगन में एक बुढ़िया दिखलायी पड़ी। उसके बाल सन की तरह सफेद थे। शरीर पर टाट लपेटे हुए वह भिखारिनी-सी लग रही थी। मैंने समझा शायद वह भी कोई पिशाचिनी ही होगी। मगर यह मेरा भ्रम था। वह बुढ़िया मधुमुखी थी-मोहनचन्द्र राय चौधरी की सौतेली माँ।

उसके बाद कई बार मिलने गया, पर, फिर बाबा से भेंट नहीं हुई। पता चला कि वे हिमालय की ओर चले गये। हाँ, कभी-कदा दशाश्वमेध और बंगाली टोला की गलियों में मधुमुखी से भेंट हो जाया करती है।

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