विक्रम और बेताल की कहानी | विक्रम बेताल की रहस्यमयी कहानियां | विक्रम बेताल की कहानी | Vikram Betal Ki Kahani in Hindi | Vikram Aur Betaal Hindi

विक्रम और बेताल की कहानी | विक्रम बेताल की रहस्यमयी कहानियां | विक्रम बेताल की कहानी | Vikram Betal Ki Kahani in Hindi | Vikram Aur Betaal Hindi

प्राचीनकाल की बात है, उन दिनों धारा नगरी पर महाराज भर्तृहरि का शासन था । महाराज भर्तृहरि महाराज गन्धर्वसेन के पुत्र थे । गन्धर्वसेन बड़े ही यशस्वी, प्रतापी और न्यायप्रिय थे । उनका यश दूर-दूर तक फैला था। महाराज गन्धर्वसेन के चार रानियां थीं और उन चारों से उनके छ: पुत्र थे जिनमें भर्तृहरि सबसे बड़ा था । उनसे छोटे विक्रमादित्य थे ।

पिता की मृत्यु के पश्चात बड़े पुत्र ने राज-काज संभाला और भोग-विलास में डूबकर अपने कर्तव्यों से विमुख हो गया । उसका सारा समय भोग-विलास में ही व्यतीत होता । शासन मंत्रियों व अन्य अधिकारियों के हाथों में आ गया । जिसका जैसा मन होता, महाराज के नाम से प्रजा पर वैसा ही हुक्म चला देता । कुछ ही समय में प्रजा परेशान हो उठी । मंत्रियों के अत्याचारों और मनमानी के कारण जनता त्राहि-त्राहि कर उठी । राज्य दिनों-दिन कमजोर होने लगा । महाराज के भोग विलास के कारण संतरी से मंत्री तक भ्रष्ट हो गए ।

विक्रमादित्य ने कई बार भाई को समझाने की चेष्टा की, किन्तु भर्तृहरि पर किसी प्रकार का कोई प्रभाव न पड़ा । राज्य में कुछ नेक और ईमानदार दरबारी भी थे, जो इस पूरी व्यवस्था से दुखी थे । उन्होंने विक्रमादित्य के समक्ष प्रस्ताव रखा कि आप विद्रोह करके राज्य का अधिकार हथिया लें, हम सब आपके साथ हैं ।

जब विक्रमादित्य ने देखा कि दूसरे छोटे-छोटे राजा भी धारा नगरी को हड़पने के षड्यंत्र बना रहे हैं तो उन्होंने विवश होकर अपने भाई के खिलाफ ही विद्रोह कर दिया । इसमें प्रजा, सेना और राज्य के वफादार दरबारियों ने उनका साथ दिया और देखते ही देखते महाराज भर्तृहरि का तख्ता पलट दिया गया | उस गृह युद्ध में महाराज भर्तृहरि सहित सभी भ्रष्ट मंत्री और दरबारी मारे गए ।

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महाराज विक्रमादित्य ने गद्दी संभाल ली । विक्रम सुयोग्य मंत्रियों और अधिकारियों की नियुक्ति कर धर्मानुसार शासन करने लगा । विक्रमादित्य ने दरबारियों को यथायोग्य स्थान अपने दरबार में दिया था । उनके राज्य में गुणियों का आदर किया जाता था । उनका हर सम्भव प्रयास यही रहता कि उनके राज्य में प्रजा को किसी भी प्रकार का कष्ट न पहुंचे । वे अकसर रातों को वेश बदलकर निकलते और प्रजा के दुख-दर्द का जायजा लेते । वे न्यायप्रिय थे। कैसा भी जटिल मामला क्यों न हो, वे दूध का दूध और पानी का पानी कर दिया करते थे, यही कारण था कि उनका न्याय दूर-दूर तक प्रसिद्ध हो गया ।

आसपास के राज्यों पर भी उनकी दृष्टि रहती थी । आस-पड़ोस में जो भी राजा प्रजा पर अत्याचार करता, राजा विक्रमादित्य उसे चेतावनी देते और इस पर भी यदि वह न मानता तो वे उसके राज्य पर आक्रमण करके उसे अपने अधीन कर लेते, इस प्रकार वे चक्रवर्ती सम्राट बन गए थे ।

उनके राज्य में एक ब्राह्मण रहता था, जो देवी का बड़ा भक्त था । उसने अपनी साधना से देवी को प्रसन्न कर लिया। देवी साक्षात प्रगट हुई और बोलीं-“मांगो वत्स, क्या मांगते हो? मैं तुम्हारी साधना से अति प्रसन्न हूं ।

ब्राह्मण बोला – “क्या मांगूं ? मन में कुछ मांगने की तो विशेष इच्छा ही नहीं थी । किन्तु जब देवी देने को उद्यत है तो कुछ तो मांगना ही होगा। हड़बड़ाकर बोला—”मां ! मुझे अमर कर दो।”

मां हंसी, बोली – “तथास्तु ।”

फिर उसे एक अमरफल दिया – “लो, इसे खाकर तुम अमरता को प्राप्त कर लोगे।” यह कहकर अन्तर्धान हो गईं ।

ब्राह्मण बहुत प्रसन्न हुआ । अब तो अमर हो जाऊंगा । अब मुझे कोई खतरा नहीं । मौत का भय समाप्त । खुशी से उछलता अपने घर पहुंचा और पत्नी को सारी बात बताई ।

“प्रिये ! हम दोनों मिलकर यह फल खाएंगे ।”

“तुम पागल हो।” – पत्नी ने पूरी बात सुनकर मीठी झिड़की दी -“हम भला अमर होकर क्या करेंगे । अमरता का वरदान तो किसी महागुणी, न्यायप्रिय और लोकनायक को मिलना चाहिए । हम जैसे साधारण प्राणियों के जीवन की सार्थकता तो इसी में है कि हम यथासंभव मृत्यु को प्राप्त होकर ईश्वर की कृपा से मोक्ष प्राप्त करें और इस आवागमन के चक्र से मुक्ति पाएं । आखिर अमर होकर हम करेंगे भी क्या ? क्या हम किसी भी रूप में किसी का भला कर पाएंगे ? नहीं प्रिये! हमें अमरता नहीं चाहिए । अमर तो महाराज विक्रमादित्य जैसे प्रतापी और प्रजापालक राजा को होना चाहिए, यही उचित रहेगा । आप यह अमरफल सम्राट को दे आएं । वे अमर होकर युगों-युगों तक प्रजा का भला करेंगे।”

पत्नी की बातें सुनकर ब्राह्मण जैसे नींद से जागा । सोचा, पत्नी कह तो ठीक रही है । उसके मन में उठी अमरता की इच्छा पलक झपकते ही समाप्त हो गई । “

उसने वह अमरफल लिया और महाराज विक्रमादित्य के दरबार में जा पहुंचा । “आओ ब्राह्मणदेव ! ” महाराज विक्रमादित्य ने उसका स्वागत करते हुए पूछा – आज दरबार में आने का कैसे कष्ट किया । कहिए, विक्रमादित्य आपकी क्या सेवा कर सकता है ?”

“राजन ! मैं आपको यह अमरफल देने आया हूं ।” अपने आने का कारण बताते हुए ब्राह्मण ने कहा – “इसे खाकर आप अमर हो जाएंगे और लम्बे समय तक प्रजा को आपकी छत्रछाया प्राप्त होगी ।”

“किन्तु यह अमरफल आपको कहां से प्राप्त हुआ और इसे आप स्वयं न खाकर हमें क्यों देना चाहते हैं ?”

ब्राह्मण ने अमरफल प्राप्ति की पूरी घटना उन्हें सुनाई और फिर यह भी बताया कि वह वो अमरफल उन्हें क्यों देना चाहता है ।

“हूं।” महाराज ने ब्राह्मण से वह अमरफल ले लिया और उसे थैलीभर स्वर्ण मुद्राएं देकर सम्मान के साथ विदा किया ।

ब्राह्मण के जाने के बाद महाराज विक्रमादित्य ने गहराई से उस अमरफल के विषय में सोचा और इस निर्णय पर पहुंचे कि अमर होना कोई बुद्धिमानी नहीं है । यह विधि के विधान में हस्तक्षेप होगा ।

मगर अब इस अमरफल का क्या करें ?

काफी सोच-विचार के बाद उन्हें अपनी रानी का खयाल आया जिसे वह चाहते थे । यूं तो उनकी कई रानियां थीं, किन्तु चन्द्रप्रभा नामक रानी पर ही उनका विशेष स्नेह था । वह रानी भी महाराज के लिए प्राण न्योछावर करने को तत्पर रहती थी ।

अतः महाराज ने सोचा कि ये विशेष उपहार उसे ही क्यों न दिया जाए ?

यही सोचकर उन्होंने वह अमरफल लिया और रानी चन्द्रप्रभा के महल की ओर चल दिए । कुछ देर बाद वह रानी चंद्रप्रभा के समक्ष खड़े उन्हें वह फल देते हुए बोले – “प्रिये ! आज मैं तुम्हारे लिए संसार का सबसे उत्तम और अनोखा उपहार लाया हूं।”

“उपहार ? किन्तु यह तो फल है प्राणनाथ !”

“हां, किन्तु यह अमरफल है । इसे खाकर तुम अमर हो जाओगी । तुम्हारा रूप और सौन्दर्य हमेशा बना रहेगा और तुम युगों-युगों तक इस संसार की रंगीनियां देखोगी।”

“अच्छा! किन्तु आप यह हमें क्यों दे रहे हैं महाराज”

“तुम हमारे लिए सबसे प्रिय हो चंद्रे और हम चाहते हैं कि तुम अमर हो जाओ । इस अमरफल के अलावा भी यदि कोई नियामत होती तो वह भी हम आपको ही देते । हमारी चाहत का इससे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है प्रिये । “

रानी चन्द्रप्रभा ने वह फल ले लिया और बोली – “ठीक है महाराज! मैं इसे स्नानादि के उपरान्त ही ग्रहण करूंगी।”

राज़ा चले गए । तब रानी ने सोचा – ‘मैं अमर होकर क्या करूंगी । मेरे प्रेमी को अमर होना चाहिए, ताकि जब तक मैं जीवित रहूं, वह मुझे यूं ही प्यार करता रहे।“

रानी अपने सारथी पर आसक्त थी । उसने उसे बुलाकर फल उसके सुपुर्द कर दिया । सारथी ने सोचा – “जिस वेश्या को मैं दिलो-जान से चाहता हूं, उसे अमर होना चाहिए।“

उसने उसी दिन जाकर वह फल चित्रसेना नामक वेश्या को दे दिया । वेश्या ने सोचा, ‘मैं इस नारकीय जीवन में अमर होकर क्या करूंगी । यह फल तो महाराज विक्रमादित्य जैसे गुणों के लिए ही उचित है । वह अमर होकर प्रजा की सेवा करेंगे, मैं भला अमर होकर क्या करूंगी ।’

यह सोचकर दूसरे दिन वह राजदरबार जा पहुंची और अमरफल राजा के सम्मुख रखकर विनती की कि महाराज ! आप इसे स्वीकार करें ।

अमरफल को देखकर महाराज बुरी तरह चौंके । अगले ही पल उनकी आंखों से क्रोध की चिंगारियां फूटने लगीं । उन्होंने कड़ककर पूछा – “सच-सच बताओ कि यह अमरफल तुम्हारे पास कहां से आया ?”

महाराज का क्रोधित चेहरा देखकर वेश्या डर गई । सोचने लगी कि आखिर मेरा अपराध क्या है है जो महाराज क्रोधित हो रहे हैं, कहीं ऐसा तो नहीं कि महारानी के सारथी ने यह फल राजमहल से ही चुराकर मुझे दिया हो ?

“जवाब क्यों नहीं देती ?” महाराज ने पुनः घुड़का “म… मुझे तो यह फल महारानी के सारथी ने दिया था महाराज।” कांपते स्वर में वेश्या बोली – “इसके विषय में मैं इससे अधिक कुछ नहीं जानती ।”

महाराज विक्रमादित्य के सामने पूरी बात स्पष्ट हो गई । उन्होंने एक दीर्घ निःश्वास छोड़ी, फिर वेश्या को उचित इनाम देकर विदा कर दिया ।

इसका अर्थ यह हुआ कि जिस रानी को हम दिलोजान से चाहते हैं, वह विश्वासघातिनी है । उसका अनैतिक सम्बंध सारथी से है और वह हमारी पीठ में छुरा घोंपती रही आज तक ।

रानी की चरित्रहीनता की बात जानने पर महाराज को बड़ा ही दुख हुआ । वह सोचने लगे, ‘इस संसार में किस पर विश्वास किया जाए और किस पर नहीं ? कौन अपना है और कौन पराया ? यहां कोई विश्वास के योग्य नहीं । इससे तो बेहतर यही है कि इस संसार का मोह और ममता त्यागकर तथा तपस्या करके अपना परलोक ही सुधारा जाए ।’

और फिर-दुखी मन से राजा अपनी चहेती रानी के महल में पहुंचे और सामान्य लहजे में उससे पूछा-“रानी! वह अमरफल जो हमने तुम्हें खाने के लिए दिया था, क्या वह तुमने खा लिया है ? यदि नहीं खाया हो तो लाओ, हम दोनों मिलकर उसे खाएं।”

“वह तो मैंने खा लिया महाराज।”

रानी ने झूठ तो बोल दिया, किन्तु उसके चेहरे पर भय के भाव उभर आए । आखिर महाराज उस फल के विषय में क्यों पूछ रहे हैं ?

“यदि तुमने वह फल खा लिया है, तो यह क्या है ? “

महाराज ने अपने वस्त्रों में छिपा फल निकालकर दिखाया तो चंद्रप्रभा डर गई । चेहरा सफेद पड़ गया । वह फौरन हाथ जोड़कर गिड़गिड़ा उठी-“क्षमा… महाराज क्षमा।”

“चंद्रप्रभा ! हमने तुम्हें अपनी जान से भी अधिक चाहा और हमारी चाहत का तुमने यह सिला दिया – जी तो चाहता है कि इसी समय तुम्हारा सिर धड़ से अलग कर दें, किन्तु नहीं – अब हमारे मन में मोह-ममता नहीं रही । मन भर गया है हमारा इस मोह-माया से । अब हम संन्यास ले रहे हैं । उसके बाद तुम खुलकर अपने चरित्र धन को लुटाना । तब तुम्हें न किसी से क्षमा याचना की आवश्यकता पड़ेगी और न दण्डित होने का भय रहेगा ।”

चंद्रप्रभा बार-बार महाराज के कदमों में सिर पटक रही थी, मगर महाराज ने उसकी एक न सुनी । महाराज विक्रमादित्य उसी दिन राज-काज त्यागकर वन को चले गए । इससे रानी को बड़ा गहरा सदमा पहुंचा और आत्मग्लानि के कारण उसने आत्महत्या कर ली ।

महाराज विक्रमादित्य के वन में चले जाने के बाद हालांकि मंत्री आदि राजकार्य देख अवश्य रहे थे, किन्तु अब धारा नगरी असुरक्षित हो चुकी थी । आस-पड़ोस के छोटे-छोटे राजा भी उसे हड़पने के ख्वाब देखने लगे थे । जब भगवान इन्द्र को ज्ञात हुआ कि देवलोक तक में यश और कीर्ति अर्जित करने वाले महाराज विक्रमादित्य वन को चले गए हैं और इस समय धारा नगरी पर शत्रुओं की निगाहें उठ रही हैं, तब उन्होंने एक देव को उसकी सुरक्षा के लिए नियुक्त कर दिया ।

विक्रमादित्य की अनुपस्थिति में वही देव धारा नगरी की रक्षा सुरक्षा करने लगा । उधर, तपस्या करते-करते जब काफी समय व्यतीत हो गया तो महाराज विक्रमादित्य के मन में आया कि क्यों न एक बार धारा नगरी चलकर देखा जाए कि अब वहां का हाल कैसा है ? उस समय रात जब आधी से अधिक गुजर चुकी, तब महाराज संन्यासी का वेश धारण किए धारा नगरी में प्रवेश करने लगे, मगर तभी नगरी के रक्षक देव ने उन्हें ललकारा- “ठहर जा, कौन है तू।”

विक्रमादित्य ठिठक गए और सोचने लगे कि ये कौन है । देव सामने आ गया— “कौन है तू, जो आधी रात के समय धारा नगरी में इस प्रकार छिपकर प्रवेश कर रहा है ?”

“मैं राजा विक्रमादित्य हूं – किन्तु तू कौन है ?”

“मैं देवराज इन्द्र द्वारा तैनात इस नगरी का रक्षक हूं।” देव ने कहा – “यदि तुम विक्रमादित्य हो तो मुझसे मल्लयुद्ध करो । मुझे परास्त करके ही तुम इस नगरी में प्रवेश कर सकते हो।”

देव के ललकारने पर विक्रमादित्य उससे मल्लयुद्ध करने को तैयार हो गए । दोनों एक दूसरे से भिड़ गए और वीर, साहसी व पराक्रमी विक्रमादित्य ने देखते ही देखते देव को परास्त कर दिया ।

फिर उसके सीने पर सवार होकर बोले-“बोलो, अब क्या चाहते हो तुम।

“मैं मानता हूं कि तुम ही विक्रमादित्य हो, क्योंकि पृथ्वी पर मुझे परास्त करने की शक्ति केवल विक्रमादित्य में ही है । अब मेरी कुछ बातें ध्यानपूर्वक सुनो, राजन! तत्पश्चात सुखपूर्वक राज्य करो।”

विक्रमादित्य ने उसे आजाद कर दिया । बंधन मुक्त होने के उपरान्त देव ने कहा -“सुनो राजन! बहुत समय पूर्व इस राज्य पर चन्द्रभान नामक एक राजा राज करता था । आपके पूर्वजों ने इसी राजा से यह राज्य छीना था । राजा एक बार जंगल में शिकार खेलने गया तो उसने देखा कि एक योगी वहां एक वृक्ष से उलटा लटका तपस्या कर रहा है । वह केवल धुआं पीकर ही जीवित रहता था । इसके अतिरिक्त वह न कुछ खाता था, न पीता था।”

राजा चन्द्रभान इस संन्यासी से अत्यधिक प्रभावित हुए और वापस लौटने पर उन्होंने अपने दरबारियों से भी इस बात का जिक्र किया । उस समय दरबार में राजनर्तकी भी उपस्थित थी । राजा कह रहे थे – “यदि कोई उस संन्यासी की तपस्या भंग कर देगा, तो हम उसे एक लाख स्वर्ण मुद्राएं देंगे |

राजनर्तकी ने पूछा- “महाराज! क्या मैं भी ऐसा कोई प्रयास कर सकती हूं।”

“हां, कोई भी इस कार्य को करने के लिए स्वतंत्र है।”

“यदि ऐसी बात है, तो मैं आपको वचन देती हूं महाराज कि मैं उस तपस्वी का तप भंग करूंगी तथा उससे एक पुत्र उत्पन्न कराकर और उसी के कंधे पर बैठाकर आपके दरबार में लेकर आऊंगी।”

“ठीक है, हमें तुम्हारा प्रस्ताव स्वीकार है।” महाराज ने कहा- “किन्तु यदि असफल हो जाओ तो फिर कदापि हमें अपनी सूरत न दिखाना।”

नर्तकी चली गई । दूसरे ही दिन वह उस वन में जा पहुंची जहां वह तपस्वी तपस्या कर रहा था । वह उस समय भी वृक्ष पर उलटा लटका अपनी साधना में लीन था । नर्तकी उसे अपने हाथों से व्यंजन बनाकर खिलाने की बात सोच, जंगल में बनी अपनी कुटिया पर गई । वहां आकर उसने हलवा बनाया और जाकर साधना में लीन तपस्वी के मुंह में डाल दिया । तपस्वी ने आंखें खोलीं और नर्तकी को देखा तो देखता ही रह गया ।

फिर तो यह रोज का सिलसिला बन गया । एक दिन तपस्वी ने सोचा कि यह सब बकवास है । इतनी सुन्दर नारी निःस्वार्थ भाव से मेरी सेवा में लीन है और मैं इस पेड़ पर उलटा लटका हुआ हू ।

वह उसी समय पेड़ से उतर आया और नर्तकी से पूछा -“तुम्हारा घर कहां है ?”

“यहीं, करीब ही मेरी झोंपड़ी है।”

“मेरी इतनी सेवा क्यों करती हो ?”

क्षमा करें, मैं आप पर मोहित हूं और चाहती हूं कि जीवन भर आपकी सेवा करूं।” तपस्वी उसकी बातों में आ गया । फिर उसके साथ उसके घर चला गया ।

दोनों पति-पत्नी की तरह रहने लगे । कुछ समय बाद वेश्या गर्भवती हो गई और उसने समय आने पर एक सुन्दर बच्चे को जन्म दिया ।

जब बच्चा एक वर्ष का हो गया तो एक दिन उसने तपस्वी से कहा—“तीर्थ यात्रा पर चलिए, कुछ पुण्य कमा लेते है |

तपस्वी मान गया ।

नर्तकी उसे बातों में लगाकर राजा चन्द्रभान के दरबार में ले आई । तपस्वी ने वेश्या से उत्पन्न पुत्र को कंधे पर बैठा रखा था ।

राजा चन्द्रभान नर्तकी को देखकर चौंक पड़ा – नर्तकी ने भेदपूर्ण मुस्कान होंठों पर बिखेरी ।

तपस्वी को जब वास्तविकता का पता चला तो वह अत्यधिक क्रोधित हो उठा । उसने वेश्या के पुत्र को मार डाला और वापस जंगल में जाकर अपनी तंत्र साधना में लग गया । उसने अपनी तंत्र साधना के बल पर राजा चन्द्रभान को राज्यविहीन कर दिया, उसका राज्य तुम्हारे पूर्वजों के हाथों में आ गया ।

तंत्र के द्वारा ही उस तपस्वी ने राजा चन्द्रभान की हत्या कर दी । बाद में नर्तकी भी मृत्यु को प्राप्त हो गई ।

फिर एक ही लग्न-मुहूर्त में तीन योगियों का जन्म हुआ – एक ने राजा के घर जन्म लिया, दूसरे ने तेली के घर और तीसरे ने एक कुम्हार के घर ये तीनों क्रमश: राजा, नर्तकी और नर्तकी-पुत्र थे, जिनका बैर अभी समाप्त नहीं हुआ था ।

नर्तकी तुम्हारी छोटी रानी चन्द्रप्रभा के रूप में जन्मी और उसने तुम्हारे साथ छल किया । बाद में भेद खुल जाने पर अपना शरीर त्याग दिया ।

तेली के घर में पैदा होने वाला योगी मरकर और फिर से जन्म लेकर इस जन्म में भी तपस्या कर रहा है ।

और वह तपस्वी पिछले जन्म में योग-साधना तोड़ने के पाप का दण्ड पिशाच बनकर भोग रहा है, जो एक वृक्ष पर उलटा लटका रहता है ।

“मैंने तुम्हें यह सब इसलिए बताया है कि तुम सावधान रहना । यदि सावधान होकर राज्य करोगे तो यश, कीर्ति और सुख प्राप्त करोगे । अब तुम अपना राजपाट संभालो।”

देव के मुख से ऐसी बात सुनकर राजा को समझते देर नहीं लगी कि देवता भी यही चाहते हैं कि मैं राजपाट संभालूं अतः अपने कर्तव्यों से भागना व्यर्थ है ।

मुझसे छल करने वाली मेरी पत्नी भी तो अब इस संसार में नहीं है । और फिर उसके किए की सजा प्रजा क्यों भोगे ? वह क्यों एक योग्य शासक से वंचित रहे । इन्द्रदेव द्वारा भेजे गए दूत का कार्य पूर्ण हो चुका था । अतः राज-काज संभालने की राज विक्रमादित्य की स्वीकृति पाकर वह वापस देवलोक चला गया । दैवयोग से तभी राजदरबारियों को राजा विक्रमादित्य के लौट आने की खबर लग गई । अतः हर्षनाद करते हुए वे सभी धारा नगरी के द्वार पर महाराज का स्वागत करने को आ पहुंचे ।

सारे राज्य में खुशियां छा गईं । कुछ ही दिनों में राज्य में सभी कुछ सामान्य हो गया । जिन राजाओं ने धारा नगरी को हड़पने के ख्वाब देखे थे, वे दुबक कर बैठ गए ।

फिर एक दिन ऐसा हुआ कि महाराज विक्रमादित्य के दरबार में एक योगी आया । उसने राजा विक्रमादित्य को एक फल दिया, कुछ पलों तक बिना कुछ बोले राजदरबार में खड़ा रहा, फिर चला गया ।

उसके चले जाने के बाद राजा विक्रमादित्य ने सोचा कि कहीं यह वही योगी तो नहीं जिसके विषय में देव ने संकेत दिया था । उसने सोचा कि कहीं यह अपना बदला लेने ही न आया हो । तब राजा ने भंडारी को बुलाकर वह फल दे दिया और कहा – “इसे संभालकर रखना”

भंडारी फल लेकर चला गया और उसने उसे भंडार गृह में रख दिया । दूसरे दिन योगी फिर आया और फिर एक फल देकर चला गया । वह योगी कई बार आया, हर बार वह राजा को एक फल देकर चला जाता ।

एक दिन राजा की उत्सुकता जागी और उन्होंने वह फल कटवाया । फल के कटते ही उसमें से एक लाल निकला जिसे देखकर सभी आश्चर्यचकित रह गए । फिर राजा ने एक-एक करके सभी फल कटवाए । आश्चर्य ! प्रत्येक फल में से एक लाल निकला । अब तो राजा की हैरानी का ठिकाना न रहा । उसने तुरन्त जौहरी को बुलवाकर वह लाल दिखलाए तो जौहरी ने बताया कि वे लाल बेशकीमती हैं ।”

अगले दिन वह योगी फिर आया तो राजा ने उससे उन लालों की चर्चा की । तब योगी हंस पड़ा और बोला- “राजन! यह सब योग बल ही है।”

“लेकिन वे फल मुझे देने का आपका अर्थ क्या है ? किस उद्देश्य से आपने मुझे वह फल दिए हैं ?”

“राजन!” योगी बोला—”मैं योग साधना कर रहा हूं । अभी तो यह एक सिद्धि ही मेरे हाथ आई है । यदि तुम मेरा साथ दो तो तुम्हारे पास कुबेर का खजाना हो जाए ।”

उत्सुक होकर राजा ने पूछा – “तो फिर बताइए कि मेरे लायक क्या सेवा है ?”

“राजन! मैं कृष्णा नदी के तट पर श्मशान में योग साधना कर रहा हूं । यदि तुम मेरी सहायता करना ही चाहते हो तो तुम्हें अकेले ही वहां श्मशान में आना होगा।”

“ठीक है, मैं आऊंगा। मगर मुझे कब आना होगा ?”

“भादों बदी चौदस को ।”

राजा ने योगी का निमंत्रण स्वीकार कर लिया । फिर निश्चित दिन और समय पर हथियार आदि से युक्त होकर वह निश्चित स्थान पर जा पहुंचा । योगी उसी का इंतजार कर रहा था । उस समय श्मशान का वातावरण बड़ा ही भयानक था । चारों ओर डाकिनी-शाकिनी, भूत-प्रेत आदि का भयंकर शोर सुनाई दे रहा था, मानो वे विक्रमादित्य को वहां आने से रोकना चाहते हों, किन्तु राजा विक्रमादित्य भी अपने किस्म का एक ही था । साहसी और पराक्रमी ।

वह बिल्कुल भी नहीं डरा और योगी के पास जा पहुंचा ।

उसका साहस देखकर योगिराज प्रसन्न हो उठा । “कहिए योगिराज ! मेरे लिए क्या आज्ञा है ?”

“राजन! यहां से दो कोस की दूरी पर एक मुर्दा पेड़ पर उलटा लटका हुआ है । तुम उसे कंधे पर लादकर यहां ले आओ।”

राजा उसके द्वारा बताई गई दिशा में चल दिया । वह रास्ता, जिस पर योगी ने उसे भेज दिया था, वह बड़ा ही बीहड़ था । रास्ते में भूत-प्रेत नाच रहे थे । जगह-जगह पर भयानक काले नाग फुंफकार रहे थे । मगर विक्रमादित्य को किसी की भी परवाह नहीं थी । वह तलवार हाथ में लिए बेधड़क आगे बढ़ता जा रहा था ।

और ! दो कोस की दूरी पर जाकर उसने देखा, पीपल के वृक्ष पर सचमुच एक मुर्दा उलटा लटका हुआ था । राजा विक्रमादित्य ने उसकी रस्सी काटी और पेड़ से उतारकर कंधे पर लाद लिया । तभी वह मुर्दा खिलखिलाकर हंस पड़ा ।

फिर वह उसके कंधे से उड़कर पुनः उसी पेड़ पर जा लटका ।

राजा हैरान ! वह पलटकर फिर मुर्दे के पास पहुंचा । “तू कौन है ?” मुर्दे ने पूछा ।

“मैं राजा विक्रमादित्य हूं। तुम कौन हो ?”

“मुर्दा! मुर्दे का न कोई नाम होता है, न कोई जात । वह सिर्फ मुर्दा होता है । तुम बताओ कि मुझे कहां ले जाना चाहते हो और मेरा ठिकाना तुम्हें किसने बताया ?”

“मैं एक योगी की आज्ञा पर तुम्हें लेने आया हूं और तुम्हें मेरे साथ चलना ही होगा।” अपनी बात कहते समय विक्रमादित्य की नजरें उसके चेहरे पर जमी हुई थीं और वह सोच रहा था कहीं यह वही तंत्री तो नहीं जिसके विषय में मुझे देव ने बताया था ।

“सुनो राजन! यदि तुम मुझे लेने ही आए हो तो मैं एक शर्त पर चलूंगा।” मुर्दा बोला—“मैं तुमसे कुछ बातें करता चलूंगा ताकि लम्बा सफर कटे । मैं तुम्हें कुछ कथाएं सुनाता चलूंगा, मगर तुम कुछ बोलना मत । बोल पड़े तो मैं फिर से इसी वृक्ष पर आकर लटक जाऊंगा।”

राजा विक्रमादित्य ने उसकी शर्त स्वीकार कर ली । तत्पश्चात मुर्दे को कंधे पर डाला और वापस लौट पड़ा ।

इधर उसके कदम आगे बढ़े । उधर मुर्दे ने बोलना प्रारम्भ किया – “सुनो राजा विक्रमादित्य ! मेरा नाम बेताल है । मैं तुम्हें एक सुनाता हूं जिससे कि मार्ग कटे । किन्तु मेरी बात याद रखना, यदि तुम बोले, तो मैं वापस लौट जाऊगा |”

राजा विक्रमादित्य चुप रहा । एक पल रुककर बेताल पुनः बोला – “सुनो राजा विक्रमादित्य ! मैं तुम्हें एक से एक कहानियां सुनाऊंगा, सुना है तुम बड़े न्यायकर्ता हो ?”

राजा इस बार भी चुप रहा । “मेरी कहानी सुनकर तुम्हें न्याय करना होगा – यदि तुमने जान-बूझकर न्याय न किया तो में मंत्रबल से तुम्हारा सिर धड़ से अलग कर दूंगा।”

और फिर बेताल विक्रमादित्य को कथा सुनाने लगा –

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