आहत मुद्रा किसे कहते हैं | आहत मुद्रा का मतलब | Punch Marked Coins

Punch Marked Coins

आहत मुद्रा किसे कहते हैं | आहत मुद्रा का मतलब | Punch Marked Coins

वैदिक काल में सोने का उपयोग मुख्यतः लोग आभूषणों के लिए करते थे । बाद में उसका प्रयोग लेन-देन और विनिमय में भी होने लगा था । सोने की यह लोकप्रियता पीछे भी बहुत दिनों तक बनी रही और वह बहुलता के साथ उपलब्ध भी था । हेरोदोत ने लिखा है कि ईसा-पूर्व ५१८ और ३५० के बीच जब अखमनी साम्राज्य के अन्तर्गत भारत का एक भू-भाग था, यहाँ से प्रतिवर्ष कर-स्वरूप ३०० तेलेंट सुवर्ण-चूर्ण जाता था । यह सब होते हुए भी वारिन्त्रयों के भारत में प्रवेश करने के पूर्व (दूसरी पहली ई.पू. तक) का सोने का बना कोई सिक्का इस देश में उपलब्ध नहीं है । जो भी आदिम सिक्के ज्ञात है वे सभी चाँदी के हैं । कदाचित् इसका कारण यह है कि उन दिनों संसार के अन्य देशों की अपेक्षा भारत में सोना सस्ता था और यहां से निर्यात होता था और बदले में चांदी आया करती थी ।

आरम्भिक दिनों में सिक्के किस प्रकार बनाये जाते थे, इसकी कोई चर्चा साहित्य में कहीं उपलब्ध नहीं है । हाँ, चन्द्रगुप्त मौर्य के मंत्री कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में, जिसकी रचना ई. पू. चौथी शती में हुई थी, कूट-रूप-कारकों (जाली सिक्का बनाने वालों ) की चर्चा की है । इस प्रसंग में उन्होंने सिक्के बनाने के उपयोग में आने-वाले उपकरणों का उल्लेख किया है । उनकी इस सूची को देखकर कहा जा सकता है की धातु पहले भूष (घरिया) में रखकर गलायी जाती थी और क्षार से उसको साफ किया जाता था । तदनन्तर धातु को अधिकर्णी (निहाई) पर रखकर मुष्टिक ( हथौड़े ) से पीटा जाता था । बाद मे संदश (कतरनी) से उसके टुकड़े बनाये जाते थे । और अन्त में इन टुकड़ों पर बिम्ब-टंक से छाप लगायी जाती थी । आज भी सिक्के बनाने के लिए टकसालों में लगभग यही प्रक्रिया की जाती है, अन्तर केवल इतना ही है कि आज ये सभी काम स्वचालित यंत्रों द्वारा किये जाते हैं ।

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तत्कालीन सिक्कों को देखने से ज्ञात होता है कि धातु के टुकड़ों को वजन संतुलित करने के लिए काटा-छांटा जाता था । फलस्वरूप वे सभी ज्यामितिक आकारों के-गोल, चौकोर, अण्डाकार आदि रूप में देखने में आते हैं । कभी-कदा सिक्के बनाने के लिए अपेक्षित वजन में धातु लेकर गलाते थे; फिर पिघली हुई धातु को भूमि अथवा किसी समतल वस्तु पर उँडेल दिया जाता था और वह जमकर स्वतः अपना कोई रूप धारण कर लेता था। कभी-कदा धातु को पिघलाकर उसको गोली बना ली जाती थी फिर उसको पीटकर चिपटा कर लेते थे । इस प्रकार तैयार किये गये धातु-फलकों पर एक ओर बिम्ब-टंकों द्वारा अपेक्षित चिह्न छाप दिये जाते थे ।

आरम्भकालीन इन सिक्कों पर इस प्रकार टंकित एक से पाँच चिह्न देखने में आते हैं । इसका अर्थ यह है कि सिक्के बनाने के लिए आज की तरह केवल एक ठप्पे का प्रयोग न कर एक से अधिक ठप्पों द्वारा अलग-अलग चिह्न अंकित किये जाते थे । निर्माण की इस पद्धति के आधार पर मुद्रातत्त्वविदों ने इन सिक्कों को आहत मुद्रा (पंच मार्ड क्वायन)(Punch Marked Coins) का नाम दिया है ।

आहत मुद्राओं के ठप्पों में लेख न होकर मात्र प्रतीक थे; अर्थात् उन पर नाना आकार के पर्वत, वृक्ष, पशु, पक्षी, संसृप, मानव, पुष्प आदि आकृतियाँ अथवा ज्यामितिक आकार, धार्मिक प्रतीक अथवा तत्प्रभृत अन्य चिह्नों का अंकन पाया जाता है । इस प्रकार इन सिक्कों पर अंकित किये जाने वाले प्रतीकों (चिह्नों) की संख्या कई सौ है । इन सिक्कों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि इन लांछनों का प्रयोग किसी निश्चित व्यवस्था के अनुसार किया गया था । ये प्रतीक (लांछन, चिह्न) प्रान्तविशेष अथवा भाँतविशेष के अनुसार अपनी भिन्नता व्यक्त करते हैं । इस प्रकार एक प्रदेश अथवा राज्य के सिक्के दूसरे प्रदेश अथवा राज्य के सिक्कों से अलग पहचाने जा सकते हैं और टकसाल तथा काल के अनुसार छाँटे जा सकते हैं ।

पहले कहा गया है कि ये सिक्के मूलतः एक ही ओर टंकित किये जाते थे । सुविधा के लिए इसे सिक्के का चित भाग कह सकते हैं । इनका दूसरा अर्थात् पट भाग एकदम सादा बिना किसी चिह्न के होता था । काल-क्रम में पट ओर भी कुछ चिह्न अंकित किये जाने लगे । किन्तु पट ओर के ये चिह्न टकसाल के न थे । अनुमान किया जाता है कि उन्हें सर्राफ अथवा पारखी (रूप दर्शक, रूप-तर्क) व्यवहार बीच समय-समय पर धातु और वजन की परख के प्रमाणस्वरूप अंकित करते रहे होंगे ।

इस प्रकार एक ही भाँत के चित और समान चिह्न अथवा चिह्न-समूह वाले सिक्कों का पट सादा अथवा नन्हें चिह्नों से अंकित देखने में आता है । इन नन्हें चिह्नों की संख्या एक-दो हो सकती है और दस-बारह भी । यही नहीं, ये चिह्न, जिनकी छाप बहुत हलकी होती है, एक ही सिक्के पर कुछ ताजे और कुछ घिसे देखे जा सकते हैं । और ये इस बात के द्योतक हैं कि जो सिक्का अधिक दिनों तक व्यवहार में रहा, उस सिक्के की अपेक्षा जो कम प्रचलन में रहा, अधिक चिह्न हैं और जिस पर कोई चिह्न नहीं है, वह या तो व्यवहार में आया ही नहीं या व्यवहार के बीच सर्राफ अथवा पारखी तक पहुँच नहीं पाया अर्थात् वह अधिक दिनों तक चलन में नहीं था ।

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