सिक्कों का इतिहास | सिक्कों का अध्ययन | सिक्कों पर आधारित प्रश्न | Sikko Ka Adhyayan

Sikko Ka Adhyayan

सिक्कों का इतिहास | सिक्कों का अध्ययन | सिक्कों पर आधारित प्रश्न | Sikko Ka Adhyayan

सिक्कों की कहानी आरम्भ करने से पूर्व हमें इतिहास के उस युग पर दृष्टि डालनी होगी जब मनुष्य अपने परिवार में ही सीमित था । उन दिनों उसकी आवश्यकताएँ भी सीमित थीं । उसके रहने, खाने, पहनने की सभी आवश्यकताएँ प्रकृति और धरती माता के अनुग्रह से पूरी हो जाया करती थीं । जीवन की किसी अन्य सुख-सुविधा के लिए उसे प्रयास करने की आवश्यकता न थी । काल-क्रम में, परिवारों ने जत्यों अथवा समूहों का रूप धारण किया और मानव जीवन को एक नया आयाम प्राप्त हुआ । एक स्थान पर रहनेवाले जत्थे (समूह) के लोग धीरे-धीरे दूसरे स्थान पर रहनेवाले जत्यों (समूहों) के सम्पर्क में आने लगे और तब फिर मानव-जीवन ने एक नया रूप धारण किया । अभी तक तो प्रत्येक जत्थे (समूह) के लोगों को अपने क्षेत्र की उपज पर एकाधिकार था । जब समूहों (जत्यों) के बीच सम्पर्क बढ़ा, तब लोगों को एक-दूसरे के क्षेत्रों में उपजने अथवा मिलनेवाली वस्तुओं की जानकारी हुई ।

स्वाभाविक था कि लोग एक-दूसरे की वस्तुओं के प्रति आकृष्ट और उन्हें प्राप्त करने के लिए लालायित हों । इस प्रकार लोगों के बीच वस्तुओं के परस्पर आदान-प्रदान की भावना का उदय हुआ । लोग अपनी वस्तु दूसरे लोगों को कुछ उसी तरह लेने-देने करने लगे जिस तरह आज स्कूली बच्चे अपनी गोलियों से टिकटों का बदलना किया करते हैं ।

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मनुष्य जब स्थिर होकर एक स्थान पर बसने लगा और जत्यों (समूहों) के आकार में वृद्धि हुई तब विभिन्न वस्तुओं का आदान-प्रदान उनके जीवन की एक अनिवार्य आवश्यकता बन गयी । पारस्परिक आदान-प्रदान ने अब व्यवसाय का रूप धारण किया और बदलौन की प्रथा ने एक व्यवस्थित रूप लिया । तब बदलौन की इन नयी व्यवस्था में लोगों ने अनेक कठिनाइयों का अनुभव किया । उन कठिनाइयों को दूर करने के लिए उन्होंने तब नया ढंग अपनाया । वस्तुओं के आदान-प्रदान के बीच किसी एक वस्तु को विनिमय का माध्यम स्वीकार किया | यथासमय इस नयी विनिमय-प्रणाली में किन्हीं वस्तुओं को अन्य वस्तुओं की अपेक्षा वरीयता प्राप्त हुई और उन्हें अन्य वस्तुओं की अपेक्षा मूल्यवान् माना जाने लगा । ये मूल्यवान् वस्तुएँ ही विनिमय की माध्यम मानी गयीं । अन्य वस्तुओं का मूल्य-निर्धारण के लिए मानीकरण हुआ । इस प्रकार मूल्य की इकाई की कल्पना का जन्म हुआ । सिक्कों के विकास का यह प्रथम चरण था ।

हमारे देश भारत में हड़प्पा-वासी, अर्थात् वे लोग जो सिन्धु-नदी के तट के रहनेवाले थे और दक्षिण में गुजरात और पूर्व में गंगा-तट तक फैले हुए थे, कदाचित् ईसा पूर्व की तीसरी सहस्राब्दि तक विनिमय-माध्यम के रूप में अनाज का उपयोग करते रहे । पुरातत्त्वविदों की धारणा है कि विशाल भण्डारों के जो अवशेष हड़प्पा और महें-जो-दड़ो में मिले हैं, उनमें राजस्व के रूप में प्राप्त अनाज रखा जाता रहा होगा; और राज्य की अर्थव्यवस्था में वे आज के राजकीय बैंकों अथवा खजानों सरीखा काम करते रहे होंगे ।

वैदिककालीन गोचारक लोगों ने अपनी गायों को विनिमय का माध्यम मान रखा था, ऐसा अनेक ऋचाओं से प्रकट होता है । विक्रय के निमित्त प्रस्तुत इन्द्र की एक प्रतिमा का मूल्य ऋग्वेद को एक ऋचा मे दस गौ बताया गया है । एक अन्य ऋचा में कहा गया है कि एक ऋषि अपनी इन्द्र की प्रतिमा को सौ, हजार क्या दस हजार गौओं के मूल्य पर भी देने को तैयार नहीं थे । एक दूसरी ऋचा मे इस बात का उल्लेख है कि राजा भरत की सेना गौओं की प्राप्ति की भावना से युद्ध करने गयी थी । यही नहीं, इन्द्र ने अपने चोरी गये जिस धन की टोह में सरमा को भेजा था वह भी और कुछ नहीं गायें ही थीं । वैदिक आर्यों में सोम-लता की बड़ी मांग थी । संहिताओं में गायों के माध्यम से उसके क्रय के अनेक उल्लेख मिलते है । इसी प्रकार ऐतरेय ब्राह्मण में गायों के रूप में धन आँके जाने की चर्चा है ।

एक कथा में कहा गया है कि शुनःशेप को उसके पिता ने बलि के निमित्त सौ गायों के मूल्य पर राजा हरिश्चन्द्र के हाथों बेचा था । और जब कोई व्यक्ति वध के लिए शुनःशेप को यूप से बाँधने को तैयार नहीं हुआ तो उसके पिता ने ही सो गायें लेकर उसे यूप से बाँधना स्वीकार कर लिया, यही नहीं, सौ गायें और मिलने पर वह अपने पुत्र के वध के लिए भी तैयार था ।

उत्तरवर्ती वैदिक साहित्य में तो दक्षिणा के रूप में ऋत्विकों को गायें दिये जाने के असंख्य उल्लेख हैं । पाणिनि के अष्टाध्यायी से ज्ञात होता है कि वैदिकोत्तर काल में भी गायें विनिमय की माध्यम थी । उसमें गो-पुच्छ’ द्वारा क्रय करने का उल्लेख है ।

गायों के इस व्यापक व्यवहार से प्रतीत होता है कि उन दिनों उनके माध्यम से लेन-देन की आवश्यकताएं भली-भाँति पूरी होती रहीं । कदाचित् कारण यह था कि गायें शीघ्र विनष्टशील न थीं; अनाज की अपेक्षा वे अधिक दिन टिक सकती थी; यही नहीं, उनमें वृद्धि और श्रम करने तथा दूध देने की भी क्षमता थी, इससे वे लाभदायक भी थीं । किन्तु इसके साथ ही देय के माध्यम और क्रय-शक्ति-संचय की दृष्टि से वे कष्टदायक भी थीं ।

सबसे बड़ी आवश्यकता उनके निरन्तर देखभाल करते रहने की थी, साथ ही उनके पालन-पोषण के लिए थोड़ी-बहुत दक्षता भी अपेक्षित थी । सबसे बड़ा दुर्गुण तो यह था कि छोटी वस्तुओं के क्रय में उनका उपयोग नहीं किया जा सकता था । बिना मारे और मांस के रूप में परिवर्तित किये बिना उनका विभाजन नहीं हो सकता था । और ऐसा करने पर उनका समूचा मूल्य ही खत्म हो सकता था ।

निष्क क्या है | निष्क क्या था


इस प्रकार सभी प्रकार के लेन-देन के लिए गायों का उपयोग नहीं हो सकता था । उनसे स्थायी घन-संचय का उद्देश्य पूरा होना भी संभव न था । इसलिए विनिमय-माध्यम के विकल्प ढूंढ़ने की आवश्यकता का अनुभव किया गया; तब लोगों ने निष्क का प्रयोग आरम्भ किया । निष्क कदाचित् हार की तरह का कोई आभूषण था । ऋग्वेद की एक ऋचा में रुद्र को विश्वरूप निष्क पहने हुए बताया गया है । विश्वरूप से ऋचा रचयिता का अभिप्राय क्या था, यह जानना सम्भव नहीं है; तथापि समझा जाता है कि उसका तात्पर्य किसी प्रकार के अलंकरण से है | इसका अभिप्राय जो कुछ भी रहा हो यह तो कहा ही जा सकता है कि निष्क एक कलात्मक आभूषण रहा होगा ।

प्रातःकालीन उषा के सौन्दर्य का वर्णन करते हुए उसके निष्क धारण किये हुए होने की बात कही गयी है । इन उल्लेखों से प्रकट होता है कि वैदिक-कालीन समाज के बीच आभूषणों में निष्क का विशेष महत्त्व था ।

ऋग्वेद में एक स्थल पर राजा भव्य द्वारा ऋषि कक्षिवत् को दश अश्व और दस निष्क दिये जाने का उल्लेख है । अथर्ववेद में एक ऋषि ने अपने संरक्षक की उदारता का बखान करते हुए बताया है कि उन्होंने उन्हें सौ निष्क, दस हार, तीन सौ अश्व और दस हजार गायें दी थी । गोपथ ब्राह्मण में एक कथा है-कुरु-पचाल देश के सुविख्यात विद्वान् उद्दालक आरुणि जब शास्त्रार्थ के निमित्त निकले तो उन्होंने घोषणा की कि जो कोई भी उन्हें पराजित कर देगा उसे वे अपनी पताका में लगा निष्क भेट कर देंगे ।

छान्दोग्य उपनिषद् में बताया गया है कि अपना सैद्धान्तिक दृष्टिकोण बदलने के निमित्त एक राजा ने एक ऋषि को अपनी कन्या भेंट करने के साथ-साथ एक हजार गाय, एक अश्व, एक रथ, एक गाँव और एक निष्क देने का प्रलोभन दिया था ।

इन उल्लेखों से ऐसा ज्ञात होता है कि गाय के साथ-साथ निष्क नामक आभूषण भी वैदिक काल में सम्पति का प्रतीक था । राजा लोग अपने पुरोहितों को निष्क भेंट किया करते थे ।

भारत मे स्वर्ण का उपयोग


विनिमय-माध्यम के रूप में आभूषणों के प्रयोग के परिणामस्वरूप स्वाभाविक रूप से लोगों का ध्यान धातुओं की ओर गया होगा । विनिमय मे निरन्तर एक ही प्रकार के आभूषण प्राप्त करने की अपेक्षा उन्हें अनगढ़ धातु लेना अधिक सुकर जान पड़ा होगा । उससे जब चाहे मनचाहे आभूषण बनाये जा सकते थे । यह अवस्था आने पर भारत में कदाचित लोगों ने विनिमय-माध्यम के रूप में स्वर्ण का प्रयोग आरम्भ किया था ।

उन दिनों अनेक बड़ी नदियों से यहाँ सोना छानकर निकाला जाता था और दक्षिण के खानों में भी वह बड़ी मात्रा में उपलब्ध था । इसके अतिरिक्त मध्य एशिया, अफगानिस्तान और तिब्बत से भी इस देश में सोना आता था । विनिमय-माध्यम के रूप में धातु के प्रयोग के साथ उसके माप की समस्या उभरी और तुला के आविष्कार ने धातु के तौलने का समुचित साधन प्रस्तुत किया ।

रत्ती क्या होता है | रत्ती का मतलब


इसके साथ ही भार (वजन) के मान का प्रश्न भी उठा । तब लोगों ने बीजों से धातु को तोलना आरम्भ किया । उन्होंने ऐसे बीज जो वजन और आकार में लगभग इन बीजों के आधार पर वजन की इकाई निर्धारित की गयी । तैत्तिरीय ब्राह्मण में राजसूय यज्ञ के अवसर पर रथ-दौड़ में भाग लेनेवालों को एक-एक कृष्णल पुरस्कार दिये जाने का उल्लेख है । इस उल्लेख से ऐसा जान पड़ता है कि विजेताओं को पुरस्कार में एक-एक कृष्णल सोना (अथवा कोई अन्य धातु) दी गयी थी । कृष्णल उस बीज को कहते थे, जिसे परवर्ती साहित्य में रक्तिका या गुब्जा कहा गया है और आज रत्ती के नाम से प्रसिद्ध है । यव (जौ), तन्दुल (चावल), भाष (उड़द) आदि अन्य बीजों एवं अन्न का भी प्रयोग इस देश में वजन की इकाई के रूप में होता आया है । कर्ष और कलंजु नामक दो अन्य बड़े बीज है, जिनका प्रयोग वजन के रूप में होता रहा है ।

धातु के माध्यम से विनिमय में कठिनाई यह थी कि इसके लिए हर समय तराजू आवश्यक था । और हर विनिमय के लिए तौलना एक कठिन कार्य था । तौलने की इस कठिनाई को दूर करने के लिए अपेक्षित वजन और मूल्य के धातु-पिण्डों के प्रयोग की कल्पना की गयी । शतपथ ब्राह्मण और आपस्तम्ब, मानव, कात्यायन आदि श्रीत सूत्रों में हिरण्य (घन) के प्रसंग में मान (शाब्दिक अर्थ-इकाई) शब्द संयुक्त १०, १२, २४, ३०, ४०, ७० आदिएँ देखने को मिलती है । शतमान (१०० ज्ञान) का उल्लेख तो स्रूप से गोल-आकार के धातु-पिण्ड के रूप में प्राप्त होता है । राजसूय यज्ञ के समय जो रथ दौड़ होती थी, उसमें राज-रथ के दोनों पड़ियों में गोड शतमान बाँधे जाते थे और बाद में उन्हें ऋतविकों को दे दिया जाता था । इसी प्रकार बृहदारण्यक उपनिषद में राजा जनक के बहु-दक्षिणा यज्ञ के प्रसंग में एक अन्य धातु-खण्ड का उल्लेख हुआ है । राजा जनक ने विद्वानों को एक सभा बुलायी थी और सबसे बड़े विद्वान् को दस हजार ऐसा गाये भेंट करने की घोषणा की थी जिनके सींग में दस-दस पाद बँधे थे ।

वैदिक साहित्य के इन तथा इसी प्रकार के अन्य अवतरणों से निःसंदिग्ध रूप से इस बात का परिचय मिलता है कि भारतीय इतिहास के आरम्भिक काल में ईसा पूर्व १५०० और ८०० के बीच सिक्कों के विकास के प्रथम दो चरणों ने अपना रूप व्यवस्थित कर लिया था । किन्तु इस प्रकार के उल्लेख ऐसे बिखरे और परस्पर उलझे हुए हैं कि यह कहना कठिन है कि सिक्कों के विकास की ओर बढ़ते हुए भारतीय जनता ने कब एक चरण से दूसरे चरण में प्रवेश किया था ।

सिक्कों का जन्म


निश्चित वजन और आकार के धातु-पिण्डों के माध्यम से सौदा करने की प्रथा व्यवस्थित हो जाने पर भी कुछ कठिनाइयाँ बनी हुई थी । धातु-पिण्डों और फलकों के निश्चित वजन के होने के बावजूद न तो उनके ठीक वजन की कोई प्रामाणिकता थी और न धातु के अच्छे-बुरे होने से सम्बन्धित जानकारी । लोगों को स्वतः इसके प्रति आश्वस्त होना पड़ता था । इस कारण तराजू और कसौटी की आवश्यकता अब भी बनी हुई थी । इस कठिनाई को मिटाने के लिए भारत तथा कुछ अन्य देशों के लोगों ने सोचा कि ठीक वजन और समुचित धातु के प्रमाण के प्रतीकस्वरूप धातु-पिण्डों पर किसी उत्तरदायी अधिकारी का चिह्न अंकित किया जाया करे । इस प्रकार सिक्कों का जन्म हुआ ।

इस आविष्कार का लाभ सबसे अधिक व्यापारी समाज को हुआ होगा । इससे उनके लिए लेन-देन का काम अति सहज हो गया । इस प्रकार के चिह्नित धातु-पिंड देने मात्र से ही कोई वस्तु सहज प्राप्त की जा सकती थी । इस कारण लोगों की धारणा है कि सिक्कों के विकास की दिशा में स्वयं व्यापारियों ने ही पहल की होगी । सिक्कों का मूल्य धातु-पिण्ड को प्रमाणित करने वाले व्यक्ति की ईमानदारी और साख पर निर्भर करता रहा होगा ।

व्यापारियों, उनके श्रेणियों और निकायों का प्रभाव उनके अपने क्षेत्र तक ही सीमित रहा होगा । इस कारण उनके द्वारा प्रचलित किसी धातु-खण्ड का विस्तृत प्रचार और व्यवहार सम्भव नहीं जान पडता । यदि सिक्कों के विकास में व्यापारियों और व्यव्सायीयो का कोई हाथ रहा भी हो तो वह केवल उसके विकासावस्था अथवा आरम्भ अवस्था तक ही सीमित रहा होगा । व्यापारियों द्वारा सिक्कों के प्रचलित किये जाने का उल्लेख न तो किसी भारतीय साहित्य में उपलब्ध है और न यह बात किन्हीं उपलब्ध सिक्कों से प्रकट होती है । तथ्य यही है कि राजाओं अथवा राज्यों ने ही, जिनका प्रभुत्व सन्देह से परे रहा है, सिक्कों के बनाने का उत्तरदायित्व ग्रहण किया होगा, जो कालान्तर में उनका एकच्छत्र अधिकार बन गया ।

इस काल तक भारत सिक्कों के प्रयोग की विकसित अवस्था तक पहुँच चुका था । यह बात उसके आधार पर कही जा सकती है और सहज कल्पना की जा सकती है कि सिक्कों के आरम्भिक निर्माण और इस काल के बीच काफी अन्तराल होगा ।

अतः यह कहा जा सकता है कि सिक्के अष्टाध्यायी की रचना से बहुत पूर्व अपना अन्तिम रूप धारण कर चुके थे । दूसरी ओर ब्राह्मणों और उपनिषदों में सिक्कों का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता । अतः यह कहना उचित होगा कि सिक्कों का विकास इन ग्रन्थों के रचनाकाल के पश्चात् ही किसी समय हुआ होगा; किन्तु बहुत बाद नहीं ।

कदाचित् इस देश में ईसा-पूर्व सातवीं शती में सिक्कों का प्रचलन हो गया रहा होगा । यदि हमारी यह धारणा ठीक है तो कहा जा सकता है कि लीडिया अथवा चीन द्वारा सिक्कों की कल्पना किये जाने से कम-से-कम एक शती पूर्व भारत में सिक्कों का आविष्कार हो चुका था ।

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