हावड़ा ब्रिज की कहानी | जब हुई हावड़ाब्रिज को उड़ाने की साजिश | Story of Howrah Bridge | Howrah Bridge History in Hindi
कभी-कभार साधारण व्यक्ति भी बड़े ही दुस्साहसिक कार्य कर देता है । आवश्यकता होती है, तो बस सूझबूझ की ।
ऐसी ही एक घटना हुई थी सन् १९१२ के मध्य में जब एक मामूली से धोबी की अनोखी सूझबूझ के कारण अपने मुखिया सहित सात जापानी जासूस पकड़े जा सके । उन्हें कलकत्ता, हावड़ा के बीच हुगली नदी पर बने नए हावड़ाब्रिज को उड़ाने का काम सौंपा गया था । जापानियों की योजना थी, बंगाल को शेष भारत से काट कर आवागमन ही ठप कर दिया जाए और यह कठिन कार्य इस पुल को उड़ा कर ही संभव हो सकता था ।
७ दिसम्बर १९४१ को पर्ल हार्बर पर अचानक आक्रमण कर जापान मित्र राष्ट्रों के खिलाफ युद्ध में कूद चुका था । उसकी फौजें अमेरिकनों, फ्रांसीसियों, डचों और अंग्रेजों का सफाया करते हुए तूफान की तरह आगे बढ़ती ही गई और तीन महीने के अंदर-अंदर जापानी झंडे ग्वाम, मिडवे, वेक द्वीप, फिलिपींस, हांगकांग, थाइलैंड, जावा, सुमात्रा, बोर्नियो, मलाया, सिंगापुर में लहराने लगे । अब बारी थी बर्मा पर आक्रमण करके भारत पर कब्जा करने की ।
अंग्रेजों के लिए बड़ी विकट घड़ी थी । बढ़ते हुए बवंडर की तरह जापानी सैनिकों को रोकने में वे असफल रहे । ७ मार्च, १९४२ को जापानियों ने ब्रिटिश फील्ड मार्शल वाइकाउंट आर्चिबाल्ड वेवल को बर्मा से खदेड़ कर ही दम लिया । कुछ बौद्ध भिक्षु और जनजातियों के अनेक नेता बर्मा (अब म्यांमार) में अंग्रेजों के कट्टर शत्रु थे । जापानियों को इनका पूरा-पूरा सहयोग मिला । इन्हीं की कृपा से तोकाक्का नामक जापानी गुप्तचर संस्था में कुछ खास आदमियों को भर्ती करके उन्हें तोड़-फोड़ के कार्यों में भली-भांति प्रशिक्षित किया गया । ये प्रशिक्षण केंद्र विभिन्न गुप्त स्थानों में थे ।
एक केंद्र का गुप्तचर अपने दूसरे केंद्र के साथी को पहचानता न था । यह व्यवस्था सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए ही की गई थी । म्यांमार छोड़ते समय शरणार्थियों की पहली खेप में सात जापानी जासूसों ने भी पैदल ही ऊंचे-ऊंचे दुर्गम पहाड़, घने जंगल, उत्तर से दक्षिण की ओर तेजी से बहती नदियां, नाले, पार कर भारत भूमि में प्रवेश किया । वे बौद्ध भिक्षुओं के वेश में थे । सबने अलग-अलग सीमा पार की । वे एक-दूसरे को पहचानते भी नहीं थे । गेरुए वस्त्र धारण किए हुए थे सब | अंतर केवल इतना था कि उनकी सारौंग (लुंगियों) की किनारी लाल रंग की थी । एकमात्र इसी संकेत से उन्हें भारत में अपने साथियों को पूर्व निर्धारित स्थान पर पहचानना था ।
शरणार्थियों के वेश में कहीं दुश्मन के भेदिए भी भारत में घुसपेठ न कर बैठें, इसलिए भारत-म्यांमार सीमा पर ही ब्रिटिश गुप्तचरों द्वारा उनकी जांच-पड़ताल कर ली जाती थी । यदि किसी पर तनिक भी संदेह हुआ, तो इंटरोगेशन (पूछताछ) के लिए उसे शिलांग, अगरतला, सिलचर, रांची, दीमापुर आदि केंद्रों में भेज दिया जाता था । वहां फोर्स वन-थ्री-सिक्स के अंग्रेज अफसर उनकी कस कर खिंचाई करते थे ।
इस पहली खेप में कई हजार शरणार्थी थे । जिन लोगों के पास परिचय पत्र और अंग्रेज अफसरों की सिफारिशी चिट्ठियां थीं, उन्हें बेरोकटोक भारत में दाखिल होने दिया जाता था । इस तरह कुछ को अनुमति मिली पूछताछ के बाद । शेष को गहरी छानबीन के लिए अन्य केंद्रों में भेज दिया गया । संयोग से लाल किनारे वाली लुंगियां लपेटे सातों जापानी जासूसों को भी विशेष पूछताछ के लिए इन्हीं केंद्रों में भेजा गया ।
एक दिन की बात है । दीमापुर कैंप का धोबी अपने अंग्रेज अफसरों के कपड़े मैदान में सुखा रहा था । निकट ही कुछ शरणार्थियों के कपड़े भी सूख रहे थे, जो उन्होंने स्वयं धोए थे । उसकी नजर पड़ी गेरुआ रंग की लुंगी पर, जिसका किनारा लाल था । उसे कुछ अजीब-सा लगा । बौद्ध भिक्षु तो रेशमी वस्त्र धारण करते हैं गेरुआ रंग के, फिर यह लाल किनारी कैसी ? उससे रहा न गया और यह बात अपने साहब के कान में डाल दी ।
गहन छानबीन के बाद पता चला कि दीमापुर शिविर में केवल दो ही बौद्ध भिक्षु ऐसे हैं, जिनकी लुंगियों के किनारे लाल थे, फिर शुरू हुई दोनों की तगड़ी पूछताछ । हीला-हवाला तो बहुत किया, अधिकारियों को गुमराह करने की कोशिश भी की, लेकिन इंटरोगेशन में माहिर अफसरों के आगे उनकी दाल न गली । अंत में दोनों ने उगल ही दिया कि हावड़ाब्रिज उड़ाने के लिए ही उन्हें भारत भेजा गया था, किंतु वे अपने अन्य साथियों के बारे में कुछ भी न बता सके । उन्हें पता ही नहीं था कि उनके अलावा यह काम किसी और को भी सौंपा गया था ।
तुरंत सभी पूछताछ केंद्रों को गुप्त वायरलैस संदेश भेजा गया कि लाल किनारे की लुंगी पहने सभी बौद्ध भिक्षुओं को कड़ी निगरानी में तुरंत दीमापुर रवाना किया जाए । ऐसे लोगों की संख्या पांच निकली । दीमापुर पहुंचने पर जब उनके साथ भी सख्ती से पेश आया गया, तब सभी को अपने जापानी जासूस होने की बात स्वीकार करनी पड़ी ।
कलकत्ता स्थित अपने मास्टर स्पाई (प्रमुख जासूस) के बारे में भी बता दिया, जो उन्हें किसी भी मंगलवार की शाम कालीघाट स्थित काली मंदिर के प्रांगण में मिलने वाला था । हावड़ाब्रिज उड़ाने की समस्त विस्फोटक सामग्री उसी के पास थी । ये सातों तो खाली हाथ थे ।
उस मास्टर स्पाई की गिरफ्तारी के बाद सबको वही सजा दी गई, जो युद्ध के दिनों में दुश्मन के जासूसों को दी जाती है और उस गरीब धोबी को मिले बहुत से इनाम, जिसकी सूझबूझ से हमारा देश भयंकर अहित से बच गया ।