ग्रेगर जॉन मेंडल की कहानी | ग्रेगर जॉन मेंडल के नियम | ग्रेगर जॉन मेंडल कौन थे | Gregor Johann Mendel in Hindi
आज के वैज्ञानिक अपने प्रयोगों के लिए बड़ी-बड़ी प्रयोगशालाएं और उनमें लगे यंत्र और उपकरण प्रयोग करते हैं, लेकिन ग्रेगर जॉन मेंडल एक ऐसे वैज्ञानिक थे, जिन्होंने मटर के पौधों की सहायता से आनुवांशिकी के ऐसे नियम प्रतिपादित किये, जो आज भी अपने आप में सत्य हैं और पूरी तरह से लागू भी होते हैं ।
पौधों पर प्रयोग करने वाले ग्रेगर जॉन मेंडल ऐसे प्रथम वैज्ञानिक थे, जिन्होंने आनुवांशिकी को वैज्ञानिक रूप दिया ।
ग्रेगर जॉन मेंडल ऑस्ट्रिया के एक मोन्क (Monk) थे । इनकी शिक्षा वियाना विश्वविद्यालय में सम्पन्न हुई । शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् वे अपनी मॉनेस्ट्री ब्रून (जिसे आजकल ब्रनो कहते हैं) में लौट आये और वहां पढ़ाना आरम्भ कर दिया । यहां वे प्रकृति विज्ञान विषय में शिक्षा देते थे । वास्तविकता तो यह है कि बचपन से ही इनकी प्रकृति विज्ञान में विशेष रुचि थी ।
आनुवांशिकी से संबंधित प्रयोग करने के लिए ग्रेगर जॉन मेंडल ने अपनी मॉनेस्ट्री के बगीचे में अनेक मटर के पौधे उगाये । इन मटर के पौधों से इन्होंने अनेक प्रयोग किये । आनुवांशिकी के अनेक गुणों का अध्ययन करने के लिये उन्होंने मटर के पौधों के तनों की लम्बाई, फूलों की स्थिति तथा रंग, मटर के दानों की आकृति आदि अनेक चीजों पर पूर्णरूपेण ध्यान दिया । अपने प्रयोगों से उन्होंने अनेक निष्कर्ष निकाले और निश्चय किया कि प्रत्येक गुण का एक दूसरे से क्या संबंध है ।
ग्रेगर जॉन मेंडल ने मटर के लम्बे और बौने पौधों के बीच में संकरण कराया और पाया कि प्रथम पीढ़ी में सभी पौधे लम्बे थे, लेकिन प्रथम पीढ़ी के आपसी संकरण से प्राप्त दूसरी पीढ़ी के पौधों में लम्बे तथा बौने पौधों का अनुपात क्रमशः 3: 1 था । इन प्रयोगों से ग्रेगर जॉन मेंडल ने यह निष्कर्ष निकाला कि लम्बेपन का गुण प्रभावी (Dominant) होता है तथा बौनेपन का गुण अप्रभावी होता है । दूसरी पीढ़ी में यह गुण बहुत अधिक प्रभावी नहीं होता ।
दूसरे प्रयोग में मटर के ऐसे पौधों में संकरण कराया गया, जिनमें से एक के बीज गोल तथा पीले थे तथा दूसरे में झुर्रीदार तथा हरे थे । इस संकरण के फलस्वरूप पहली पीढ़ी में गोल तथा पीले बीज वाले पौधे हुये लेकिन जब पहली पीढ़ी का आपसी संकरण कराया गया तो दूसरी पीढ़ी में गोल, पीले, हरे, झुर्रीदार पीले तथा झुर्रीदार हरे बीज वाले पौधे प्राप्त हुये । इनका अनुपात 9:3:3:1 था । इस प्रयोग से यह सिद्ध हो गया कि मटर के दानों का गोल तथा पीलेपन का लक्षण झुर्रीदार तथा हरेपन के लक्षणों से अधिक प्रभावी है |
अपने प्रयोगों से प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर मैंडल ने सन् १८६५ में आनुवांशिकता के निम्न सिद्धांत प्रतिपादित किये ।
1. प्रभाविता का सिद्धांत (Law of Dominance): दो विपरीत गुणों वाले पौधों के संकरण से पैदा हुई संतान में केवल एक ही लक्षण पैदा होता है और जो लक्षण संतान में प्रकट होता है उसे प्रभावी और दूसरे को अप्रभावी लक्षण कहा जाता है।
2. विसंयोजन का नियम (Law of Segregation) : जब संतान में दो विभिन्न गुणों वाले कारक साथ-साथ हों तो दोनों मिश्रित नहीं होते हैं । वे अक्सर एक-दूसरे से अलग-अलग ही प्रकट होते हैं ।
3. स्वतंत्र अपव्यूहन का नियम (Law of Independent Assortment) : दो या दो से अधिक विपरीत गुणों वाले कारक युग्मक बनते समय स्वतंत्र रूप से बट जाते हैं। संयोजन के भी ये स्वतंत्र रूप से आपस में मिलकर विभिन्न गुणों वाले जीव उत्पन्न करते हैं ।
ग्रेगर जॉन मेंडल ने जिन कारणों को आनुवांशिक लक्षणों के संचार का आधार माना इन्हें ही अब जीन (Gene) कहा जाता है । ये जीन कोशिकाओं (Cells) पर स्थिर होते हैं तथा जनन के समय एक पीढ़ी (माता, पिता) से दूसरी पीढ़ी (संतान) में स्थानांतरित होते हैं ।
आधुनिक आनुवांशिकता का सिद्धांत काफी जटिल है । इसमें जीन ही आनुवांशिकता की इकाई (Unit) है ।
मैंडल ने जो निष्कर्ष निकाले उनके लिये उन्होंने नौ वर्ष तक अनुसंधान किये, लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि उनके जीवन काल में उनके आविष्कारों को विश्व के दूसरे वैज्ञानिकों ने कभी भी नहीं जाना। उन्हीं के ये नियम सन् 1900 में दूसरे वैज्ञानिकों द्वारा दुबारा से खोजे गये । उनके मरने के बाद ही वैज्ञानिक ग्रेगर जॉन मेंडल के योगदानों को जान पाये ।
ग्रेगर जॉन मेंडल ने अपने प्रयोगों से यह भली-भांति सिद्ध कर दिया था कि संतान अधिकांश लक्षणों में माता-पिता के समान होती है फिर भी सभी गुणों में वह उनके समान नहीं होती ।
संतान कभी भी पूर्ण रूप से माता-पिता की प्रतिलिपि (Prototype) नहीं होती । एक ही जाति के दो जीवों में कोई न कोई असमानता अवश्य ही होती है । इस असमानता को विभिन्नता कहते हैं । इस प्रकार आनुवांशिकता तथा विभिन्नतायें जीवों के विकास का मूल आधार हैं ।
जीव विज्ञान का यह महान आविष्कारक ६ जनवरी, १८८४ को भगवान को प्यारे हो गए ।