तिब्बत तंत्र साधना | लामा बौद्ध धर्म | वज्रयान संप्रदाय | मिलरेपा | Tibet Tantra Sadhana | Vajrayana Buddhism in Hindi | Milarepa Hindi

तिब्बत तंत्र साधना | लामा बौद्ध धर्म | वज्रयान संप्रदाय | मिलरेपा | Tibet Tantra Sadhana | Vajrayana Buddhism in Hindi | Milarepa Hindi

पद्मसंभव पहले उघान (स्वार्त) का राजकुमार था, जिसने बौद्ध भिक्षु की दीक्षा ले ली थी । तिब्बत के राजा रिवर-स्त्रोड़-लदे भजन के निमंत्रण पर वह तिब्बत गया और वहां उसने भारतीय तंत्र पर आधारित वज्रयान संप्रदाय का प्रचार किया । तिब्बती लोगों का विश्वास था कि उसे ऐसी सिद्धियां प्राप्त थीं, जिससे वह अलौकिक चमत्कार दिखा सकता था ।

उसने तिब्बत में जिस वज्रयान संप्रदाय का जिस रूप में प्रचार किया, वह लामा धर्म के नाम से विख्यात है । तिब्बती लोग बुद्ध के समान पद्मसंभव की भी पूजा करते हैं । वहां का महातांत्रिक मर्प तीन बार भारत आए और भारतीय गुरुओं से दीक्षा ली । उनका शिष्य मिलरेप महान् योगी था ।

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लामा ब्रूस्तोन द्वारा स्थापित शालू मठ में ‘तीव्राति’ नामक यौगिक अभ्यास करवाया जाता है । इस प्रक्रिया में साधक किसी मोटे गद्दे पर पद्मासन लगाकर बैठता है और प्राणायाम की पूरक विधि से अपने शरीर में वायु भरता है । फिर वह कुंभक अवस्था में आसनबद्ध होकर ऊपर उछलने की कोशिश करता है । यह अभ्यास स्त्रियां भी करती हैं । कई वर्षों के अभ्यास से शरीर बहुत ही हलका हो जाता है और उड़ने तक की शक्ति आ जाती है । ‘शीघ्रगामिता’ का अभ्यास कुछ और प्रकार से किया जाता है । जब यह सिद्धि प्राप्त हो जाती है, तो साधक बड़ी तीव्र गति से उछलता हुआ भागता है । उस समय उसे कोई भी रोकने का प्रयास नहीं करता । ऐसा करने से दोनों के अनिष्ट होने की संभावना होती है ।

फ्रांसीसी लेखिका अलेक्जेंड्रा डेविड नील ने अपने १५ वर्ष के तिब्बत प्रवास में ऐसे तीन साधकों को अपनी आंखों से देखा है । ‘मानसिक संक्रमण’ अर्थात् ‘टेलीपैथी’ में भी तिब्बती साधक सिद्धहस्त होते हैं । अभ्यास के दौरान गुरु और शिष्य एकांत में बैठ कर किसी एक वस्तु पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं । कुछ समय बाद दोनों अपने अनुभव एक-दूसरे को बतलाते हैं और यह निष्कर्ष निकालते हैं कि उस केंद्रित वस्तु के प्रति गुरु और शिष्य के विचारों में कितना अंतर और कितनी समानता है । अंततः एक ऐसी स्थिति आती है कि शिष्य चाहे कहीं भी हो, उसे गुरु से अंतप्रेरणा मिलती रहती है ।

एक बार मैडम डेविड एक लामा के साथ यात्रा कर रही थीं । यात्रा के दौरान उन्हें दही खाने की इच्छा हुई । निश्चित स्थान पर पहुंचने पर उन्होंने एक शिष्य को हाथ में दही का सकोरा लिए खड़ा पाया । शिष्य ने अंतर्मन से गुरु से पूछा कि इस दही का क्या किया जाए । गुरु ने इशारा किया और शिष्य ने दही का पात्र अलेक्जेंड्रा के सामने रख दिया ।

“सृष्टि मन का संकल्प मात्र है” यह अपने यहां का अति प्राचीन सिद्धांत है । इसे व्यावहारिक स्वरूप देने में शक्ति की आवश्यकता होती है । कई लामा अभी भी ऐसा कर सकते हैं कि वे किसी पशु, पक्षी या मनुष्य का ध्यान करते हैं और उसे मूर्त कर देते हैं । इस मूर्त रूप को तिब्बती भाषा में ‘तुल्प’ कहते हैं । पर काया प्रवेश की विद्या भी लामाओं में अभी तक पाई जाती है ।

अब एक सवाल यह पैदा होता है कि यदि तिब्बत के लामाओं को इस तरह की सिद्धियां प्राप्त हैं, तो आज उनके देश की यह दुर्दशा क्यों हो रही है ? उनका कहना है कि जो बात पूर्व निश्चित है, वह तो होकर ही रहेगी । तिब्बत की तंत्र विद्या भारत की देन है ।

विदेशी आक्रमण से काफी हद तक भारत से आई इन विद्याओं को बहुत ठेस पहुंची । संतोष की बात यह कि तिब्बत वासियों ने आज भी काफी हद तक इन विद्याओं को अपने यहां सुरक्षित रखा है ।

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