कृष्णा कुमारी विवाद । Krishna Kumari Mewar

कृष्णा कुमारी विवाद । Krishna Kumari Mewar

जिस चित्तौड़-भूमि में प्रताप जेसे प्रणवीर, राजसिंह जैसे राजनींतिज्ञ तथा पद्मावती जैसी पतिव्रता स्त्रियो हो गयी हैं, उसी वीर-प्रधान भूमि में कृष्णकुमारी ने भी जन्म लिया था । कृष्णकुमारी का जन्म १७९२ ई०में हुआ था । इनके पिता का नाम राणा भीमसिंह था । कन्या रूप मे वह गुणों की खान थी । उसकी मन-मोहिनी मुख को देख किसका चित्त प्रसन्न नहीं होता था ? उसकी मधुर वापा वाणी किसे प्रिय नहीं लगती थी ? तात्पर्य यह, कि अलौकिक में सौन्दर्य के कारण वह सबकी प्रिय हो रही थी ।

धीरे-धीरे उसकी सुन्दरता की प्रशंसा चारों ओर होने लगी । कृष्णकुमारी जब ब्याह ने योग्य हो गयी, तब मेवाड़ के अधीश्वर राणा भीमसिंह ने इनका विवाह, जोधपुर-नरेश से करना निश्चित किया। परन्तु विवाह होने के पूर्व ही उनको ( जोधपुर नरेश की ) मृत्यु हो गयी । इस घटना से वे बहुत दुखी हुए । कृष्णकुमारी के विवाह की चिन्ता फिर उनको सताने लगी ।

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बहुत छानबीन करनेके पश्चात उन्होंने अपनी पुत्री को जयपुर-नरेश जगतसिंह के हाथ सौंपना तय किया । पर राजा मानसिंह ज्योंही जोधपुर की राजगद्दी पर बैठे, त्योंही उन्होंने इस विवाह सम्बन्ध को रोक दिया । उन्होंने कृष्णकुमारी का विवाह स्वयम अपने साथ करने की इच्छा प्रकट की । विकट समस्या उपस्थित हो गयी । यद्यपि राणा भीमसिंह ने कृष्णकुमारी का विवाह सम्बन्ध जगतसिंह के साथ तय किया था, तथापि राजा मानसिंह स्वयम्‌ अपने साथ करना चाहते थे । अत: भीमसिंह कुछ तय नहीं कर सके । फल यह हुआ, कि दोनों नरेशों की ओर से इन पर दबाव डाला जाने लगा ।

ये अभी विचार ही कर रहे थे, कि इतने में कृष्णकुमारी के लिये जयपुर और जोधपुर की सेनाओ ने मेवाड़ पर आक्रमण कर कर अस्त-व्यस्त कर डाला । पर यह फैसला केवल भीमसिंह के साथ ही हल होने वाला नहीं था । राजा जगतसिंह तथा राजा मानसिह के साथ भी इसका फैसला होना आवश्यक था । इस लिये पर्वत शिखर पर राजा जगतसिंह तथा राजा मानसिंह का भीषण संग्राम हुआ, जिसमें राजा मानसिंह का पराजय हुआ । राजा जगतसिंह ने उनका पीछा किया और जोधपुर को छः महीने तक अपने राज्य कैद रखा । परंतु ज्योंही जगतसिंह अपनी सेना लेकर जयपुर लौटने लगे, त्योंही राजा मानसिंह ने उन पर एक बड़ी सेना लेकर चढ़ाई कर दी । जगतसिंह इस बार हार गये और उनकी सेना छिन्न-भिन्न हो गयी । तत्पश्चात् राजा मानसिंह कृष्णकुमारी का विवाह अपने साथ करने के लिये अमीर खाँ पिण्डार की सहायता से मेवाड़-भूमि पर नाना प्रकार के उपद्रव करने लगे, पर भीमसिंह अपनी कन्या का विवाह उनके साथ करना नहीं चाहते थे । इसलिये यह झगड़ा बहुत दिनों तक चलता रहा ।

राणा भीमसिंह बड़ी चिन्ता में पड़ गये । इस झगड़े के कारण न तो कृष्णकुमारी का विवाह ही कहीं हो सकता था और न भीमसिंह राजकार्य ही देख सकते थे । प्रजा भी बार-बार के इन उपद्रवों से तंग आ गयी थी । इसलिये इस झगड़े का शीघ्र ही अन्त हो जाना मेवाड़ के लिये बहुत आवश्यक था । राणा के सबंधी जीवनदास उस अभागिनी कृष्णकुमारी के जीवन का अन्त कर इस कठिन प्रश्न को हल करना चाहते थे,पर वे इस कार्य को करने का साहस नहीं कर सके । अतः वीरागना कृष्णकुमारी पिता की प्रतिष्ठा तथा देश की शान्ति-रक्षा करने के लिये स्वयं आत्महत्या करने को तैयार हो गयी ।

ऐसा निश्चय कर, माता तथा बहिनों से आशीर्वाद ले; परम पिता परमात्मा से प्रार्थना करती हुई बोली,- “भगवन् ! मुझे आशीर्वाद दो, कि मैं फिर मेवाड़ में जन्म लेकर मातृभूमि की सेवा कर सकूँ । इसके लिये फिर भी जीवनोत्सग कर सकूँ ।”

ऐसा कहकर वीरबाला कृष्णकुमारी विष का प्याला उठा कर पी गयी । जिसके सौन्दर्य पर विमोहित होकर नरेशों ने इतना उपद्रव मचाया था, वह शान्तिपूर्वक सुरलोक को सिधार गयी ।

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