विक्रम बेताल की कहानी भाग 4 – पूजनीय कौन | विक्रम बेताल पच्चीसी | Vikram Betal Story

विक्रम बेताल की कहानी भाग 4 – पूजनीय कौन | विक्रम बेताल पच्चीसी | Vikram Betal Story

इस बार विक्रम अत्यधिक क्रोध में भरा वृक्ष के पास आया और चीखकर बोला -“बेताल ! तुम बहुत दगाबाज हो । मैं तुम्हारा सिर काट डालूंगा । आखिर तुम बार-बार क्यों भाग आते हो?”

बेताल कुछ न बोला । वह वृक्ष पर लटका रहा ।

विक्रम ने उसे वृक्ष से उतारकर कंधे पर डाला और चुपचाप अपने रास्ते पर चल दिया । जब कुछ रास्ता तय हो गया तो धीरे से बेताल बोला – “विक्रम! तुम इतने नाराज क्यों हो ?”

“तुम बार-बार भाग क्यों आते हो ?”

“तुम बोल पड़ते हो और मैं भाग आता हूं । क्या तुम्हें मेरी शर्त याद नहीं रहती ?”

आखिर तुम मुझसे न्याय की बात पूछते ही क्यों हो ? तुम्हारे पूछने पर ही तो मुझे बोलना पड़ता हैं । तुम तो जानते ही हो कि मेरा नाम न्याय के लिए प्रसिद्ध है । मेरा तो स्वभाव ही ऐसा बन गया है ।

और मेरा भी भागने का स्वभाव बन गया है। कहकर बेताल ठठाकर हंस पड़ा ।

बेताल के इस व्यवहार पर राजा विक्रमादित्य भी मुस्करा उठा ।

सुनो विक्रम ! रास्ता जल्दी और आसानी से कटे, इसके लिए मैं तुम्हें एक कहानी सुनाता हूं ।

विक्रम कुछ नहीं बोला ।

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बेताल ने कहना शुरू किया – “विक्रम ! यह कहानी बड़ी ही अजीब है । तुम्हें इसका सही-सही न्याय करना होगा । यदि तुमने जान-बूझकर भी न्याय नहीं किया तो तुम्हारा सिर टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा । “

विक्रमादित्य खामोशी से अपने मार्ग पर चला जा रहा था ।

बेताल ने कहानी सुनानी आरम्भ की —

अवन्ती नगर में गुणवंत नामक एक सेठ रहता था । वह परम धार्मिक और लोक-परलोक में आस्था रखने वाला व्यक्ति था । उसकी पत्नी बड़ी रूपवती थी, किन्तु थी दुश्चरित्रा । इसी कारण उसने एक वर्ण संकर संतान उत्पन्न की । वह संतान कन्या थी । वर्ण संकर होने के कारण वह अपनी मां से भी अधिक सुन्दर थी । समय के साथ-साथ वह जवान हो गई । उस पर क्योंकि उसकी मां का ही अधिक स्नेह था, इसलिए वह भी उसी की भांति दुश्चरित्रा होकर उभरी ।

मां की भांति मौका पाकर वह भी इधर-उधर ताक-झांक लेती थी । उसके युवा हो जाने पर सेठ गुणवंत को उसके विवाह की चिन्ता हुई और वह उसके लिए कोई सुयोग्य वर की खोज में लग गया ।

इसी बीच उसे पता चला कि घर के एक नौकर से उसकी बेटी के अवैध संबंध हैं । उसने तुरन्त उस नौकर को नौकरी से निकाल दिया । वह नौकर उसी नगर में कहीं और नौकरी करने लगा । अपना निवास भी उसने नौकरी से अलग एक स्थान पर बना लिया ।

इतना सब होने पर भी सेठ की पुत्री रत्नावती चोरी-छिपे उससे मिलने जाया करती थी । वह घंटा-दो घंटा वहां रुकती, प्रेमलीला सम्पन्न करती और वापस आ जाती । वह रात में ही घर से जाती और रात में ही वापस आ जाती थी । इस बात का केवल उसकी मां को ही पता था । इसी बीच उसके पिता ने उसके लिए एक योग्य वर की तलाश भी कर ली थी ।

फिर उचित समय देखकर सेठ गुणवंत ने उसका विवाह भी कर दिया । रत्नावती शादी के बाद अपने पति के घर आ गई, किन्तु प्रेमी नौकर से उसका सम्पर्क न टूटा । चूंकि उसकी ससुराल भी उसी नगर में और प्रेमी के घर के करीब थी, इसलिए उनका संबंध बराबर बना हुआ था ।

इस काम के लिए रत्नावती ने लालच देकर अपनी सेविका को अपने पक्ष में कर लिया था । वह अपनी सेविका की मदद से अपने पति के निद्रामग्न हो जाने के बाद अपने प्रेमी के घर चलें जाती थी । उसकी सेविका भी कुछ कम नहीं थी । उसने अपनी मालिकिन को पूरी तरह अपने शिकंजे में जकड़ लिया था । इसके लिए उसने उसका संबंध अपने भाई से भी करा दिया था ।

इसी बीच रत्नावती के पति को उस पर कुछ संदेह हो गया कि उसकी नौकरानी और पत्नी आपस में मिलकर कुछ खिचड़ी पका रही हैं, अतः उसने उस नौकरानी को घर से निकाल दिया । अब तो रत्नावती का सारा खेल बिगड़ गया । वह अपने प्रेमी से मिलने को तरसने लगी । मगर वह भी अपने चरित्र की इकलौती ही थी । उसने एक रात किसी प्रकार अवसर निकाल ही लिया और अपने प्रेमी के घर जा पहुंची । वहां उसने अपने प्रेमी को रो-रोकर सब दुखड़ा सुनाया ।

“रत्नावती! तुम कुछ दिन सन्तोष करो । जब तुम्हारे पति का संदेह कुछ कम हो जाएगा, तो हम फिर से पहले की भांति रोजाना मिल लिया करेंगे ।”

उस दिन तो वह प्रेमी का दिलासा पाकर चली आई । मगर अधिक दिनों तक उसे संतोष न हुआ । वह बुरी तरह तड़पने लगी । उसके पति ने जब उसकी ऐसी हालत देखी तो उसने अपने एक विश्वासी व्यक्ति से मिलकर अपनी पत्नी के प्रेमी नौकर को विष दिलवा दिया ।

शाम को खाना आदि खाकर जब नौकर सोया तो फिर न उठ सका । उसी रात रत्नावती के भी सब्र का बांध टूट गया और वह घर से चल पड़ी उससे मिलने के लिए । आज वह बहुत सज-धजकर निकली थी । रास्ते में उसे एक चोर ने देखा तो मोहित होकर तथा कीमती गहनों के लालच में वह उसके पीछे लग लिया । वह देखना चाहता था कि वह कहां जाती है और इतनी रात गए घर से अकेले निकलने का साहस उसने क्यों किया ।

चोर भी दबे पांव घर में घुस गया और एक स्थान पर छिपकर उसकी गतिविधियां देखने लगा । उसके प्रेमी के घर के सामने एक वृक्ष था । उस वृक्ष पर एक पिशाच रहता था । उसने रात के समय सजी-संवरी रत्नावती को आते देखा तो वह भी उस पर मोहित हो उठा ।

एकाएक ही उसके मन में आया कि क्यों न उसके मृत प्रेमी के शरीर में प्रवेश कर इस सुन्दरी का सुख पाया जाए । बस, यह खयाल मन में आते ही वह उसके प्रेमी के शरीर में प्रवेश कर गया ।

रत्नावती सीधी अपने प्रेमी की गोद में जा गिरी । उसके प्रेमी के शरीर में समाए पिशाच ने उसे बांहों में भरकर उसका भरपूर सुख उठाया । वह इतना अधिक उत्तेजित हो उठा कि उत्तेजना में भरकर उसने उसकी नाक काट ली, फिर नौकर के शरीर से निकलकर वृक्ष पर जा बैठा । रत्नावती की नाक का कटा टुकड़ा नौकर के मृत शरीर के मुंह में ही रह गया ।

नाक कटने से रत्नावती दर्द से चीख उठी । फिर जब उसने नौकर को मरा देखा तो उसकी तो सिट्टी-पिट्टी ही गुम हो गई । वह भयभीत होकर वहां से भाग खड़ी हुई ।

चोर भी एक कोने में छिपा खड़ा था । उसने यह सब देखा तो उसकी भी कुछ समझ में नहीं आया और वह भी बुरी तरह भयभीत हो उठा । रत्नावती को जाते देखकर भी न टोका और केवल उसका पीछा करता रहा ।

रत्नावती वापस अपने घर चली आई और अपने पति के कक्ष में बैठकर चीख-चीखकर रोने लगी । उसका पति बेखबर सो रहा था । घर के अन्य सदस्य भी सो रहे थे । मगर रत्नावती के चीख-चीखकर रोने की आवाजें सुनकर सभी जाग गए ।

रोती-रोती परिवार के सभी सदस्यों को सुनाती हुई रत्नावती कह रही थी कि उसके पति ने उसकी नाक काट ली । यह सुनकर सभी सदस्य हैरान रह गए । उसके पति के आश्चर्य का भी ठिकाना न रहा ।

रत्नावती का हाहाकार सुनकर पास-पड़ोस के लोग भी वहां एकत्रित हो गए । जिसने भी रत्नावती के आरोप को सुना, वही उसके पति को धिक्कारने लगा । रत्नावती का पति बार-बार सफाई दे रहा था कि वह इस संदर्भ में कुछ भी नहीं जानता, मगर कोई उसकी बात मानने को तैयार ही न था ।

बात धीरे-धीरे चारों ओर फैलने लगी और उड़ती-उड़ती कोतवाल तक भी जा पहुंची । कोतवाल तुरंत ही अपने दल-बल के साथ वहां आ धमका । उसने सारा किस्सा पूछा तो वह भी उलझ सा गया । अतः उसने मामले को महाराज के दरबार में पेश करना ही मुनासिब समझा ।

यह सुनते ही कि रत्नावती के पति ने उसकी नाक काट ली है, महाराज को बड़ा क्रोध आया । उसने किसी की कोई बात सुने बिना ही अपना फैसला सुना दिया-“रत्नावती के पति को फांसी पर चढ़ा दिया जाए।”

रत्नावती का पति रोता-पीटता रहा, मगर महाराज का फैसला हो चुका था।
चारों ओर यह खबर फैल गई कि रत्नावती के पति को फांसी दे दी गई है । उस चोर ने भी यह खबर सुनी । मगर दूसरों की तरह वह चुप न बैठ सका । वह दूसरे दिन ही राजा के दरबार में जा पहुंचा और उसे पूरी बात बताई ।

सारी बात बताकर प्रमाण देने के लिए वह बोल—“अन्नदाता ! उस व्यक्ति की लाश अभी भी वहीं पड़ी है । उसका मुंह यदि खोलकर देखा जाएगा तो इसकी कटी हुई नाक उसके मुंह में ही होगी ।”

महाराज ने तुरन्त सिपाहियों को आज्ञा दी । सिपाही चोर को साथ लेकर घटनास्थल पर गए और उसकी बात सही पाई गई ।

तब महाराज की आज्ञा से रत्नावती के पति को छोड़ दिया गया और रत्नावती के लिए महाराज ने आज्ञा दी कि उसका सिर मुंडवाकर हमारे राज्य से निकाल दिया जाए।”

इतनी कहानी सुनाकर बेताल रुका, फिर एक गहरी सांस लेकर बोला—“राजा विक्रम ! अब तू न्याय कर कि इस कहानी में दोषी कौन है और कौन सत्पथ पर रहा ?”

विक्रम खामोशी से अपना सफर तय करता रहा, इस बार उसने तय कर लिया था कि चाहे कुछ भी हो, बेताल के बहकावे में आकर मुंह नहीं खोलेगा ।

राजा विक्रम को मौन देखकर बेताल बोला -“अच्छा चलो, मैं तुम्हें एक कहानी और सुनाता हूं,

फिर तुम दोनों पर अपना निर्णय सुनाना –


इन्द्रपुर नामक एक नगरी में महाधन नामक एक धार्मिक प्रवृत्ति का धनवान व्यक्ति रहता था । उसके पुत्र का नाम श्रीधन था, जो बड़ा ही दुष्ट और दुराचारी था । अपने बेटे के दुराचारों से तंग आकर सेठ महाधन ने उसे अपने घर से निकाल दिया । भटकता-भटकता सेठ का वह बेटा चन्द्रनगर नामक नगरी में जा पहुंचा, जहां हेमगुण नामक एक और सेठ रहता था । उसकी पुत्री विवाह योग्य हो गई थी और वह अपनी पुत्री के विवाह के लिए चिंतित रहता था ।

उसकी पुत्री का नाम चंद्रमुखी था । जैसा उसका नाम था, वैसा ही उसका रंग-रूप भी था । श्रीधन जब भटकते-भटकते वहां पहुंचा, तब तक घर से जो पैसे लेकर वह चला था, वह सभी समाप्त चुके थे और एक प्रकार से वह बिल्कुल कंगाल हो चुका था ।

अब आगे जीवन-यापन करने के लिए उसे धन की सख्त आवश्यकता थी । धन कहां से आए ? यही सोचते-सोचते उसके दिमाग में एक युक्ति आई तथा दूसरे ही दिन अपनी दीन-हीन हालत बनाकर वह सेठ हेमगुण के यहां जा पहुंचा और अपना परिचय देने के बाद बोला – व्यापार के सिलसिले में घर से निकला था, मगर रास्ते में लुटेरों के एक गिरोह ने मुझे लूट लिया । बुरी तरह मारा-पीटा । मैं किसी प्रकार बड़ी मुश्किल से अपनी जान बचाकर वहां से भाग आया हूं और इस समय मेरे पास एक फूटी कौड़ी भी नहीं है, जो आगे किसी भी दिशा में बढ़ सकूं।”

सेठ हेमगुण ने बड़े ही धैर्यपूर्वक उसकी बात सुनी ।

यह जानकर कि वह सेठ महाधन का पुत्र है, उसके मन में कोई दूसरी ही इच्छा बलवती हो उठी उसने कहा – “बेटा ! तुम किसी प्रकार की चिन्ता न करो और जब तक मन करे, मेरे यहां अतिथि बनकर रहो ।”

उसने नौकरों के साथ उसे मेहमानखाने में भेज दिया और नौकरों को हिदायत दी कि उसकी अच्छी प्रकार सेवा की जाए ।

इसके पश्चात वह अपनी पत्नी के पास गया और उसे पूरी बात बताई । सेठ की पत्नी ने उसे देखने की इच्छा जाहिर की । कदाचित् वह भी अपने पति के मन की बात समझ चुकी थी |

शाम को जब चाय-पान का समय हुआ तो बैठक में जाकर सेठ की पत्नी ने श्रीधन को देखा । स्नानादि तथा नए वस्त्र पहनने के बाद श्रीधन का व्यक्तित्व और भी निखर आया था । वह देखने में भी बड़ा सुन्दर था । अतः अपनी पुत्री चन्द्रमुखी के लिए वह उसे हर प्रकार से योग्य वर लगा । चायकाल के बाद जब श्रीधन अतिथिगृह में चला गया तो उसने अपने मन की बात पति के समक्ष रख दी ।

‘वाह-वाह ! चन्द्रमुखी की मां ! तुमने तो मेरे मुंह की बात छीन ली । इस युवक को देखकर यह बात मेरे मन में भी आई थी।” खुश होकर सेठ हेमगुण बोला—“अब तुमने अपनी स्वीकृति दे दी है तो मैं श्रीधन से बात करता हूं ।”

सेठ हेमगुण कुछ देर बाद ही श्रीधन के पास आ पहुंचा और उसने बड़ी विनम्रता से अपनी पुत्री का रिश्ता उसके समक्ष पेश किया । उसका प्रस्ताव सुनकर श्रीधन आश्चर्यचकित रह गया ।

हैरानी की बात भी थी । कहां तो वह थोड़े से धन के लोभ में उसके यहां आया था और कहां सेठ उसे अपना दामाद बना रहा था, इससे अच्छी बात उसके लिए और भला क्या हो सकती थी । उसके साथ तो वही मिसाल हुई कि अंधा क्या चाहे, दो आंखें ।

उस जैसे निकम्मे और दुराचारी की तो जैसे लॉटरी निकल आई थी । अतः उसने तुरन्त विवाह की स्वीकृति दे दी । उसे पत्नी की इतनी आवश्यकता नहीं थी, जितनी की दान-दहेज की ।

फिर ! सेठ ने शुभ मुहूर्त निकलवाकर अपनी पुत्री का विवाह उसके साथ कर दिया । श्रीधन ने विवाह के बाद चंद्रमुखी को देखा तो देखता ही रह गया ।

फिर कुछ दिनों तक वह भोग-विलास में डूबा रहा । सेठ हेमगुण ने उसे बहुत सा दहेज दिया था जिसकी कीमत लाखों रुपये थी ।

जब इसी प्रकार भोग-विलास में डूबे कई दिन गुजर गए तो एक दिन चन्द्रमुखी ने कहा—“स्वामी ! क्या आप अपने घर नहीं चलेंगे । विवाह के बाद लड़की का असली घर तो उसकी ससुराल ही होता है । आप बताएं कि हम अपने घर कब चलेंगे।”

‘चलेंगे प्रिये ! अवश्य चलेंगे।” श्रीधन ने उसे बांहों में लेकर कहा-“दरअसल, मैं तो तुम्हारे प्यार में सब कुछ भूल गया हूं।”

दूसरे दिन ही श्रीधन ने वापस जाने की तैयारी कर ली । उसने सारा दहेज और विदाई के समय मिलने वाली दूसरी सम्पत्ति भी अपने कब्जे में की और चन्द्रमुखी को साथ लेकर अपने घर की ओर चल दिया ।

चलते-चलते वे एक बियाबान जंगल में आ गए । जंगल के बीचोंबीच एक कुआं था, कुएं के पास आकर श्रीधन ठहर गया और बोला–“प्रिये ! क्यों न हम कुछ समय यहां आराम करके ही आगे बढ़ें ।”

चन्द्रमुखी को भला क्या आपत्ति हो सकती थी । वह तो उन भारतीय स्त्रियों में से थी जिनके लिए पति का आदेश ईश्वर का आदेश होता है । श्रीधन ने वहीं एक वृक्ष के नीचे डेरा डाल लिया ।

दरअसल, श्रीधन के मन में ससुराल से चलते समय ही एक योजना आ गई थी | धन उसके हाथ लग ही चुका था और सुन्दर पत्नी का सुख भी वह उठा चुका था । उसने वहां से चलते समय ही सोच लिया था कि किसी प्रकार पत्नी से छुटकारा पाना है ।

अतः उस बियाबान जंगल में एक कुआं देखते ही उसके दिमाग में एक शैतानी खयाल उभरा और उसने उसे अमली जामा पहनाने के लिए ही वहां डेरा डाला था । उन दोनों ने बैठकर साथ-साथ खाना खाया ।

फिर उसने बातें बना-बनाकर कि सफर में इतने कीमती गहने नहीं पहनने चाहिए, चन्द्रमुखी के सारे जेवर उतरवा लिए । बाद में वहीं टहलने का बहाना करके वह चन्द्रमुखी को कुएं तक लाया, फिर उसने उसे कुएं में धकेल दिया ।

तत्पश्चात उसके सारे जेवर और दूसरा माल-असबाब लेकर वह वहां से रफूचक्कर हो गया । श्रीधन उसी दिन एक दूसरे शहर में आ गया और वहां पूरे ऐशो-आराम से रहने लगा ।

अब वह केवल ऐशो-आराम करता था और बाकी समय और धन जुआ खेलने में बरबाद करता था । धीरे-धीरे उसका धन समाप्त हो रहा था ।

उधर, जिस कुएं में श्रीधन ने अपनी पत्नी को धकेला था, कुआं सूखा था । कुएं में गिरने के कारण चन्द्रमुखी का सिर फट गया था और एक दर्दनाक चीख के बाद कुएं में गिरकर बेहोश हो गई थी ।

काफी देर बाद जब उसे होश आया तो वह मदद की उम्मीद में जोर-जोर से चिल्लाने लगी । उस बियाबान जंगल में हालांकि चारों और गहरा सन्नाटा छाया हुआ था । इसके बावजूद घोड़े पर सवार एक राही उसी दिशा में निकल आया ।

घोड़े की टापों की आवाज सुनकर ही वह जोर-जोर से चिल्लाने लगी थी । इस बीहड़ जंगल में किसी औरत की चीख सुनकर वह आश्चर्यचकित रह गया । इस भयानक जंगल में भला किसी महिला का क्या काम ? अवश्य ही वह किसी मुसीबत में है ।

यह सोचकर उसने घोड़े का रुख कुएं की ओर कर दिया । वहां आकर उसने किसी प्रकार चन्द्रमुखी को कुएं से निकाला, फिर उससे सारा किस्सा पूछा ।

चन्द्रमुखी ने अपना परिचय देकर बताया-“मैं अपने पति के साथ पीहर से विदा होकर ससुराल जा रही थी कि हमें कुछ डाकुओं ने घेर लिया । मेरे सारे गहने उतरवाकर मुझे कुएं में फेंक गए और शायद मेरे पति को सामान सहित बांधकर अपने साथ ले गए हैं ।”

चन्द्रमुखी ने अपने दुष्ट पति की सारी करतूत छिपा ली थी । राहगीर बड़ा दयालु और ईश्वर से डरने वाला नेक इंसान था । उसने आग्रहपूर्वक चन्द्रमुखी को उसके माता-पिता के घर चन्द्रनगर में पहुंचा दिया । बेटी से सारा समाचार पाकर सेठ हेमगुण के घर में शोक छा गया । चन्द्रमुखी ने घर आकर अपने माता-पिता को भी वही बात बताई थी जो वह राहगीर को बता चुकी थी ।

और फिर-काफी दिन तेजी से गुजर गए ।

चन्द्रमुखी जैसे-तैसे पति की करतूत को याद कर-करके आंसू बहाती अपने दिन काटती रही और उधर श्रीधन भोग-विलास में डूबा हुआ मजे से अपनी जिंदगी गुजार रहा था । वह काम-धाम तो कुछ करता नहीं था, केवल खर्च करता था और वह भी शहंशाहों की तरह- किसी ने ठीक ही कहा है कि खाली बैठे तो कुएं भी खाली हो जाते हैं ।

यही हाल श्रीधन का हुआ । धीरे-धीरे उसकी सारी पूंजी खत्म हो गई । एक दिन ऐसा आया कि उसके पास एक फूटी कौड़ी भी न बची और वह कंगाल हो गया ।

ऐसे में उसे अपने ससुर की याद आई । मगर सीधे-सीधे उसकी वहां जाने की हिम्मत न हुई । उसके मन में तो चोर था कि कहीं ऐसा न हुआ हो कि उन्हें मेरी करतूत का पता चल गया हो । अत: उसने पहले अपनी ससुराल के नगर जाकर गुप्तरूप से परिवार का हाल-चाल जानने की योजना बनाई ।

उसने ऐसा ही किया और यह जानकर हैरान रह गया कि चन्द्रमुखी तो जीवित है मगर दिखती ऐसी है मानो जिन्दा लाश हो । उसने अड़ोस-पड़ोस से गुप्तरूप से सही बात मालूम की तो पता चला कि चन्द्रमुखी के पति को ससुराल जाते समय डाकू बांधकर ले गए थे और चन्द्रमुखी को कुएं में डाल गए थे ।

बाद में किसी नेक और दयालु राहगीर के कारण ही वह वापस आ पाई थी । श्रीधन ने यह जानकर राहत की सांस ली कि उसकी पत्नी ने उसकी पोल नहीं खोली थी ।

अब तो श्रीधन सीधा हवेली में जाकर सेठ के कक्ष में जा घुसा । उस समय भी उसकी हालत भिखारियों जैसी थी । इसके बावजूद सेठ ने उसे पहचान लिया ।

“अरे ! बेटा श्रीधन, तुम… तुम….।” उसे देखकर सेठ की खुशी का ठिकाना न रहा । वह बुरी तरह हड़बड़ा गया ।

“हां पिताजी ! मैं…।” रोनी सूरत बनाकर श्रीधन बोला -“मैं तो डाकुओं की कैद से छूटकर आ रहा हूं । उन्होंने मुझे बंदी बना रखा था । चार दिनों तक जंगल-जंगल भटकने के बाद कहीं जाकर यहां पहुंचा हूं।”

और इसी प्रकार रो-रोकर श्रीधन उसे मनघड़ंत कहानी सुनाता रहा ।

“दिल छोटा मत करो बेटा ! हिम्मत से काम लो । यह मानकर चलो कि ईश्वर जो करता है अच्छा ही करता है।” उसके ससुर ने उसे दिलासा दी ।

और फिर उसे सम्मान सहित अपने घर ठहरा लिया । उसने मौका देखकर अपनी पत्नी से माफी मांग ली और बात आई गई हो गई ।

कुछ दिन ठाठ से ससुराल में रहने के बाद श्रीधन पत्नी के साथ फिर अपने घर को रवाना हुआ और इस बार उसने पहले से भी जघन्य काण्ड किया ।

उसने इस बार चन्द्रमुखी को कुएं में नहीं धकेला वरन् मारकर फेंक दिया और धन-सम्पत्ति लेकर फरार हो गया ।”

विक्रम बेताल के सवाल जवाब

बेताल के सवाल :

‘अब बताओ विक्रम !” यहां तक की कहानी सुनाकर बेताल ने पूछा – “तुमने दोनों कहानियां सुनी, पहली कहानी में राजा का न्याय था और इस दूसरी कहानी में एक ससुर का जमाता पर विश्वास करना है । इनमें से किसका पक्ष अधिक सुन्दर है ? “

“दोनों में से किसी का भी नहीं।”

“क्या मतलब ?”

राजा विक्रमादित्य के जवाब :

“सुनो बेताल ! पहली कहानी में सबसे सुन्दर पक्ष चोर का था। वह ईमानदार और रहमदिल था ।

उसके दिल में अन्याय के विरुद्ध आवाज उठाने की शक्ति भी थी । यदि वह राजा के पास जाकर सच्चाई बताने का साहस न करता तो वह राजा तो अन्याय कर ही चुका था, इसलिए उसका पक्ष बिल्कुल भी सुन्दर नहीं कहा जा सकता।”

‘और दूसरी कहानी में ?”

“दूसरी कहानी में चन्द्रमुखी का पक्ष सबसे सुन्दर कहा जाएगा । उसने पति के हाथों मृत्यु का वरण कर लिया, किन्तु उसके विरुद्ध जुबान न खोली – इसलिए ये दोनों अर्थात पहली कहानी का चोर और दूसरी कहानी की नायिका, इनका पक्ष सबसे सुन्दर था और ये दोनों ही पूजनीय हैं।”

राजा विक्रम का उत्तर पाते ही बेताल ने एक जोरदार अट्टहास किया और उसके कंधे से ऊपर उठकर हवा में तैरने लगा ।

फिर बिना कुछ बोले वह पलटा और अपने वृक्ष की ओर उड़ने लगा ।

विक्रम को उसकी इस हरकत पर बड़ा क्रोध आया । वह तलवार लेकर तेजी से उसके पीछे झपटा । बेताल भला कब उसके हाथ आने वाला था । वह वापस जाकर पेड़ पर लटक गया ।

लेकिन विक्रम भी हठी था । उसने उसे पेड़ से उतारकर कंधे पर लादा और अपनी मंजिल की ओर बढ़ने लगा । इस बार उसकी चाल में बला की फुर्ती थी ।

अरे विक्रम ! धीरे चलो, इस प्रकार तो तुम ठोकर खाकर गिर जाओगे । मगर विक्रम ने इस बार उसकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया । वह आगे बढ़ता रहा ।

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