काली साधना । काली साधना मंत्र | Kali Sadhna Vidhi | Kali Sadhna Mantra

काली साधना । काली साधना मंत्र | Kali Sadhna Vidhi | Kali Sadhna Mantra

सर्वप्रथम काली साधना के ध्यान, मंत्र, जप, होम, स्तव, हवन, कवचादि का वर्णन निम्नांकित है ।

क्रीं क्रीं क्रीं ह्रीं ह्रीं हूं हूं दक्षिणे कालिके क्री क्री क्रीं ह्रीं ह्रीं हू हू स्वाहा।

काली ध्यान


करालवदनां घोरां मुक्तकेशीं चतुर्भुजाम् ।
कालिकां दक्षिणां दिव्यां मुण्डमालाविभूषिताम् ।।
सद्यश्छिन्नाशिरःखङ्गयामाधोदूर्ध्वकराम्बुजाम् ।
अभयं वरदञ्चैव दक्षिणाधोदूर्ध्वपाणिकाम् ।।
महामेघप्रभां श्यामां तथा चैव दिगम्बरीम् ।
कण्ठावसक्तमुण्डालीगलद्ठुधिरचर्चिताम् ।
कर्णावतंसतानीतशवयुग्मभयानकाम् ।
घोरद्रंस्टाकरालास्यां पीनोन्नतपयोधराम् ।
शवानां करसंघातैः कृतकाञ्चीं हसन्मुखीम् ।।
सृकृच्छटागलद्रक्तधाराविस्फूरिताननाम् ।
घोररावां महारौद्रीं श्मशानालयवासिनीम् ।
बालार्कमण्डलाकार लोचनत्रितयान्विताम् ।।
दन्तुरां दक्षिणव्यापि मुक्तालम्बिकचोच्चयाम् ।
शवरूपमहादेवहृदयोपरि संस्थिताम् ।।
शिवाभिर्घोरावाभिश्चतुर्दिक्षु समन्विताम् ।
महाकालेन च समं विपरीतरतातुराम् ।।
मुखप्रसन्नवदनां स्मेराननसरोरुहाम् ।
एवं संचिन्तयेत् कालीं सर्वकामसमृद्धिदाम् ।।

कालिकादेवी भयंकर मुखवाली, घोरा, बिखरे केशों दाली, चतुर्भुजा तथा मुण्डमाला से अलंकृत हैं । उनकी वाम ओर के दोनों हाथों में तत्काल छेदन किये हुए मृतक का मस्तक एवं खड्ग है । दक्षिण ओर के दोनों हाथों में अभय और वरमुद्रा विद्यमान हैं । कण्ठ में मुण्डमाला से देवी गाढ़े मेघ के समान श्यामवर्ण, दिगम्बरी, कण्ठ में स्थित मुण्डमाला से टपकते रुधिर द्वारा लिप्त शरीर वाली, घोरदंष्टा, करालवदना और ऊँचे स्तन वाली हैं । उनके दोनों श्रवण (कान) दो मृतक मुण्डभूषण रूप से शोभा पाते हैं, देवी की कमर में मृतक के हाथों की करधनी विद्यमान है, वह हास्यमुखी हैं । उनके दोनों होंठों से रक्त की धारा क्षरित होने के कारण उनका वदन कम्पित होता है, देवी घोर नाद वाली, महाभयंकरी और श्मशानवासिनी हैं, उनके तीनों नेत्र तरुण अरुण की भाँति हैं । बड़े दाँत और लम्बायमान केशकलाप से युक्त हैं, वह शवरूपी महादेव के हृदय पर स्थित हैं, उनके चारों ओर घोर रव युक्त गीदड़ी भ्रमण करती हैं । देवी महाकाल के सहित विपरीत विहार में आसक्त हैं, वह प्रसन्नमुखी, सुहास्यवदन और सर्वकाम समृद्धिदायिनी हैं, इस प्रकार उनका ध्यान करें ।

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कालीपूजा यंत्र


आदौ त्रिकोणमालिख्य त्रिकोणं तद्वहिर्लिखेद् ।
ततो वै विलिखेन्मंत्री त्रिकोणत्रयमुक्तमम् ।।
ततो वृत्तं समालिख्य लिखेदप्टदलं ततः ।
वृत्तं विलिख्य विधिवत् लिखेद्भपुरमेककम् ।
मध्ये तु वैन्दवं चक्रं बीजमायाविभूषितम् ।।

पहले बिन्दु फिर निजबीज ‘क्री’ फिर भुवनेश्वरी बीज ‘ह्रीं’ लिखे ।

इसके बाहर त्रिकोण और उसके बाहर चार त्रिकोण अंकित करके वृत्त अष्टदलपद्म और पुनर्वार वृत्त अंकित करे । उसके बाहर चतुद्वार अकित करना चाहिए । यह काली पूजा का यन्त्र है ।

नोट – यंत्र को भोजपत्र पर अष्टगंध से लिखना चाहिए ।

काली के लिए जप-होम


लक्षमेकं जपेद्विद्यां हविष्याशी दिवा शुचि:।

ततस्तु तद्दशांशेन होमयेद्दविषा प्रिये ।।


पूजा के अन्त में मूल मंत्र का एक लक्ष जपकर जप का दशांश घुत से होम करना चाहिए।

कालीस्तव


कर्पूरं मध्यमान्त्यस्वरपररहितं सेन्दुवामाक्षियुक्तं

बीजन्ते मातरेतत्त्रिपुरहरवधु त्रिःकृतं ये जपन्ति ।

तेषां गद्यानि च मुखकुहरादुल्लसन्त्येव वाच: ।

स्वच्छन्दं ध्वान्तधाराधररुचिरुचिरे सर्वसिद्धिं गतानाम् ।।

टीका – हे जननि! हे सुन्दरि! तुम्हारे शरीर की कान्ति श्यामवर्ण मेघ की भाँति मनोहर है । जो तुम्हारे एकाक्षरी बीज को तिगुना करके जपते हैं, वह शिव की अणिमादि अष्टसिद्धि को प्राप्त करते हैं और उनके मुख से गद्य-पद्यमयी वाणी निकलती है ।

ईशानः सेन्दुवामश्रवणपरिगतं बीजमन्यन्महेशि

द्वन्द्वं ते मन्दचेता यदि जपति जनो वारमेकं कदाचित् ।

जित्वा वाचामधीशं धनदमपि चिरं मोहयन्नम्बुजाक्षो

वृन्दं चन्द्रार्द्चूडे प्रभवति स महाघोरवाणावतंसे ।।

टीका – हे महेश्वरि! तुम्हारी चूडा में अर्द्धचन्द्र शोभायमान है, और दोनों कानों में दो महाभयंकर बाण अलंकार स्वरूप से विराजमान हैं । विषयमत्त पुरुष भी तुम्हारे ‘हूँ’ इस बीज को दूना करके पवित्र अथवा अपवित्र काल में एक बार जप करने से भी विद्या और धन द्वारा सुरगुरु और कुबेर को परास्त करने में समर्थ हो जाता है । वह अपने सौन्दर्य से सुन्दरी स्त्रियों को भी मोहित कर सकता है, इसमें सन्देह नहीं है ।

ईशो वैश्वानरस्थः शशधरविलसह्वामनेत्रेण युक्तो ।
बीजं ते द्न्हमन्यद्विगलितचिकुरे कालिके ये जपन्ति ।
ह्वेष्टारं घन्ति ते च त्रिभुवनमपि ते वश्यभावं नयन्ति
सृकृतन्द्वास्त्रधाराद्वयधरवदने दक्षिणे कालिकेति । ।

टीका – हे मुक्तकेशि! तुम विश्वसंहत्ता काल के संग विहार करती हो, इस कारण तुम्हारा नाम ‘कालिका’ है। तुम वामा होकर दक्षिणदिक स्थित महादेव को पराजित करती हुई स्वयं निर्वाण प्रदान करती हो, इसलिए ‘दक्षिणा’ नाम से प्रसिद्ध हुई हो, तुमने प्रणवरूपी शिव का अपने माहात्म्य से तिरस्कार किया है। तुम्हारे दोनों होठों से रक्त की धारा क्षरित होने के कारण तुम्हारा मुखमण्डल परम शोभायमान है । जो तुम्हारे ‘ह्रीं ह्रीं’ इन दोनों बीजों को जप करते हैं, वे शत्रुओं को पराजित कर त्रिभुवन को वशीभूत कर सकते हैं और जो इस मन्त्र को जपते हैं, वह शत्रुकुल को अपने वश में कर त्रिभुवन में विचरण कर सकते हैं ।

ऊद्धर्व वामे कृपाणं करतलकमले छिन्नमुण्डं तथाऽध: ।
सव्ये चाभीर्वरञ्च त्रिजगदघहरे दक्षिणे कालिकेति ।।
जप्तवैतन्नामवर्ण तव मनुविभवं भावयन्त्येतदम्ब ।
तेषाम्टौ क रस्थाः प्रकटितवदने सिद्धयस्त्र्यम्बकस्य ।।

टीका – हे जगन्मातः! तुम तीनों लोकों के पातकियों का पाप हरती हो । तुम्हारे दाँतों की पंक्ति महाभयंकर है, तुमने ऊपर के बाये हाथ में खड़ग, नीचे के बायें हस्त में छिन्नमुण्ड, ऊपर के दाहिने हाथ में अभय और नीचे के दाहिने हाथ में वर धारण किया है । जो तुम्हारे पत्रक विभवस्वरूप ‘दक्षिणकालिके’ यह मंत्र जपते हैं, तुम्हारे स्वरूप की चिन्ता करते हैं, अणिमादि अष्टसिद्धियों उनको प्राप्त होती हैं।

वर्गाद्यं वह्निसंस्थं विधुरति ललितं तत्त्रयं कूर्चयुग्मं
लजादवन्द्ञज्च पश्चात्स्मितमुखि तदधष्टद्वयं योजयित्वा ।
मातर्ये ये जपन्ति स्मरहरमहिले भावयन्ते स्वरूपं
ते लक्ष्मीलास्यलीलाकमलदलदृशः कामरूपा भवन्ति ।।

टीका – हे स्मरहर की महिले! तुम्हारा मुखमण्डल मृदु-मधुर हास्य से सुशोभित है, जो मनुष्य तुम्हारे स्वरूप की भावना करके तुम्हारा नवाक्षर मंत्र (क्रींक्रींक्री हूँ हूँ ह्रीं ह्रीं स्वाहा) जप करते हैं, वह कामदेव के समान मनोहर सौन्दर्य को प्राप्त होते हैं, उनके नेत्र कमल की लीला पद्मदल के समान लम्बी और रमणीय होती है ।

प्रत्येक वा त्रयं वा द्वयमपि च परं बीजमत्यन्तगुह्यं
त्वन्नाम्ना योजयित्वा सकलमपि सदा भाववन्तो जपन्ति ।
तेषां नेत्रारविन्दे विहरति कमला वक्रशुभरआशुबिम्बे
वाग्देवी दिव्यमुण्डस्रगतिशयलसत्कण्ठपीनस्तनाढ्ये ।।

टीका – हे जगन्मातः! तुम्हारे उपदेश से ही यह त्रिभुवन अपने कार्य में नियुक्त होता है । इसी कारण तुम ‘देवी’ नाम से प्रसिद्ध हो । तुम्हारा कण्ठ मुण्डमाला धारण से परम सुशोभित है, तुम्हारा वक्षःस्थल पुष्ट ऊँचे स्तनमण्डल से विराजित है । हे महेश्वरि! जो तुम्हारा ध्यान करते हुए ‘दक्षिणे कालिके” इस नाम के पहले और अन्त में पूर्वकथित अतिगुह्य एकाक्षर मंत्र अथवा यह त्रिगुणित तीन अक्षर मंत्र, वा ‘ईशो वैश्वानरस्थ” इत्यादि श्लोक कथित द्वयक्षर मंत्र या ‘वर्गाद्या’ इत्यादि श्लोक में कहे नवाक्षर मंत्र, अथवा गुह्य बाईस अक्षर मंत्र मिलाकर जप करते हैं, कमला उनके कमल नयनों में तथा वाग्देवी मुखचन्द्र में विलास करती है ।

पगतासूनां बाहुप्रकरकृतकञ्चीपरिलस-
न्नितम्बां दिग्वस्त्रां त्रिभुवनविधात्रीं त्रिनयनाम् ।
श्मशानस्थे तल्पे शवहृदि महाकालसुरत-
प्रसक्तां त्वां ध्यायज्जननि जडचेता अपि कविः ।।

टीका – हे जननि ! तुम त्रिलोक की सृष्टिकर्त्री, त्रिलोचना और दिगम्बरी हो, तुम्हारा नितम्बदेश बाहुनिर्मित काञ्ची से अलंकृत है । तुम श्मशान में स्थित शवरूपी महादेव की हृदय-शय्या पर महाकाल के संग क्रीड़ा में रत हो । विषयमत्त मूर्ख व्यक्ति भी तुम्हारा इस प्रकार ध्यान करने से अलौकिक कवित्वशक्ति को प्राप्त करता है ।

शिवाभिर्घोराभिः शवनिवसमुण्डास्थिनिकरैः ।
परं संकीर्णायां प्रकटितचितायां हरवधूम् ।
प्रविष्टां सन्तु्टामुपरि सुरतेनातियुवतीं ।
सदा त्वां ध्यायन्ति क्वचिदपि न तेषां परिभव: ।।

टीका – हे देवि ! कालिके ! तुम महादेव की प्रियतमा हो, विपरीत विहार में सन्तुष्ट और नवयुवती हो, जिस स्थान में भयंकर शिवागण भ्रमण करती हैं, तुम उसी मृतकमुंडों की अस्थियों से आच्छादित श्मशान में नृत्य करती हो, तुम्हारी इस प्रकार चिंता करने से पराभव को प्राप्त नहीं होना पड़ता है ।

वदामस्ते किं वा जननि वयमुच्चैर्जडधियो
न धाता नापीशो हरिरपि न ते वेत्ति परमम् ।।
तथापि त्वद्भक्तिर्मुखरयति चास्माकरमसिते ।
तदेतत्क्षन्तव्यंय न खलु शिशुरोषः समुचितः ।।

टीका – हे जननि ! जब महादेव, ब्रह्मा और नारायण भी तुम्हारे परमतत्त्व को नहीं जानते, तब मूढमति हम तुम्हारा तत्त्व किस प्रकार से वर्णन करें ? हम जो इस विषय में प्रवृत्त हुए हैं, तुम्हारे प्रति भजन विषय में हमारे मन की उत्सुकता ही उसका कारण है, अनधिकार विषय में हमारे उद्यम करना देखकर तुमको क्रोध उत्पन्न हो सकता है, किन्तु मूरख संतान जानकर उसको क्षमा करो ।

समन्तादापीनस्तनजघनधृग्यौवनवती
रतासक्तो नक्तं यदि जपति भक्तस्तवममुम् ।।
विवासास्त्वां ध्यायन् गलितचिकुरस्तस्य वशगाः ।
समस्ताः सिद्धोघा भुवि चिरतरं जीवति कवि:।।

टीका – हे शिव प्रिये ! जो पुरुष नग्न और मुक्तकेश होकर पुष्ट ऊँचे स्तन वाली युवती नारी के सहित क्रीड़ासुख अनुभवपूर्वक रात्रि में तुम्हारी चिन्ता करते हुए तुम्हारे मंत्र का जप करते हैं वह कवित्व की शक्तियुक्त होकर बहुत समय तक पृथ्वी में रहते हैं और सम्पूर्ण अभीष्ट उनके समीप होता है ।

समः सुस्थीभूतो जपति विपरीतो यदि सदा ।
विचिन्त्य त्वां ध्यायन्नतिशयमहाकालपुरताम् ।
तदा तस्य क्षोणीतलविहरमाणस्य विदुष:
कराम्भोजे वश्याः स्मरहरवधूसिद्धिनिवहाः।।

टीका – हे हरवल्लभे! तुम महाकाल के संग विहार सुख का अनुभव करती हो, विपरीत रति में आसक्त होकर स्थिर मन से जो तुम्हारा ध्यान करता है वह सर्वशास्त्र में पारदर्शी हो जाता है और उसे सिद्धिसमूह हस्तगत होते हैं ।

प्रसूते संसारं जननि जगतीं पालयति च
समस्तं क्षित्यादि प्रलयसमये संहरति च ।
अतस्त्वां धातापि त्रिभुवनपतिः श्रीपतिरपि
महेशोऽपि प्रायः सकलमपि किं स्तौमि भवतीम् ।।

टीका – हे जगन्मातः! तुम से ही जगत् के समस्त पदार्थों की उत्पत्ति हुई है, अतः तुम्ही सृष्टिकर्ता ब्रह्मा हो; तुम्हीं सम्पूर्ण जगत् को पालती हो, तुम्हीं नारायण हो, महाप्रलय काल के समय यह जगत्-संसार तुमसे ही लय होता है, इससे तुम्हीं माहेश्वरी हो; किन्तु स्पष्ट समझा जाता है कि तुम्हारे पति होने के कारण ही महेश्वर प्रलयकाल में लय को प्राप्त नहीं होते ।

अनेके सेवन्ते भवदधिकगीब्ब्बाणनिवहान्
विमूढास्ते मातः किमपि न हि जानन्ति परमम् ।।
समांराध्यामाद्यां हरिहरविरिञ्चादिविवुधैः
प्रसक्तोऽस्मि स्वैरं रतिरसमहानन्दनिरताम् ।।

टीका – हे जगदम्बे! तुम निरन्तर विहार के आनन्द में निमग्न रहती हो, तुम्हीं सबकी आदिस्वरूपिणी हो, अनेक मूढ़बुद्धि व्यक्ति अन्यान्य देवताओं की आराधना करते हैं किन्तु वे अवश्य ही तुम्हारे उस अनिर्वचनीय परमतत्त्व का विषय कुछ नहीं जानते, उनके उपास्य ब्रह्मा, विष्णु, शिव इत्यादि देवता लोग भी सदा तुम्हारी उपासना में निरत बने रहते हैं ।

धरित्री कीलालं शुचिरपि समीरोऽपि गगनं
त्वमेका कल्याणी गिरीशरमणी कालि सकलम् ।।
स्तुतिः का ते मातस्तव करुणया मामगतिकं
प्रसन्ना त्वं भूया भवमनु न भूयान्मम जनुः ।।

टीका – हे जननि! क्षिति, जल, तेज, वायु और आकाश-यह पंचभूत भी स्तुति कहते हैं ।तुममें कौन गुण नहीं है, जो उसका आरोप करके तुम्हारा स्तुति करू? तुम स्वयं जगन्मयी हो, अतः तुम्हारे संबन्ध में जो वर्णन हो, वह मन्त्रसागर तुम्हारे ही स्वरूप हैं, तुम्हीं भगवान् महेश्वर की हृदयरञ्जिनी हो. तुम ही त्रिभुवन का मंगलविधान करती हो, हे जननि! इस अवस्था में तुम्हारी स्तुति करू? क्योंकि किसी विलक्षण गुण का आरोप न करके वर्णन करने को स्तुति कहते हैं। तुममें कौन गुण नहीं है, जो उसका आरोप करके स्तुति करे ? तुम स्वयं जगन्मयी हो, अतः तुम्हारे संबन्ध में जो वर्णन हो का सब तुम्हारे स्वरूपवर्णन पर है। हे कृपामयि ! तुम अपनी दया को प्रकट करके इस निराश्रय सेवक के प्रति संतुष्ट हो तो फिर इस सेवक को संसारभूमि में फिर से जन्म लेना नहीं पड़ेगा ।

श्मशानस्थस्स्वस्थो गलितचिकुरो दिक्पटधरः
सहस्रन्त्वर्काणा निजगलितवीय्य्येण कुसुमम् ।।
जपंस्त्वतप्रत्येकममुमपि तव ध्याननिरतो
महाकालि स्वैरं स भवति धरित्रीपरिवृढ: । ।

टीका – हे महाकालिके! जो मनुष्य श्मशानभूमि में वस्त्रहीन और बाल खोलकर यथाविधि आसन पर बैठकर स्थिर मन से तुम्हारे स्वरूप का ध्यान करते-करते तुम्हारे मंत्र को जपता है और अपने निकले वीर्यसंयुक्त सहस्र आक के फूलों को एक-एक करके तुम्हारे उद्देश्य से अर्पण करता है, वह सम्पूर्ण धरणी का अधीश्वर होता है।

गृहे सम्मार्जन्या परिगलितवीर्य हि चिकुरं
समूलं मध्याह्ने वितरति चितायां कुरजदिने ।।
समुच्चार्य्य प्रेम्णा जपमनु सकृत कालि सततं
गजारूढ़ो याति क्षितिपरिवृढ: सत्कविवरः ।।

टीका – हे देवि ! जो मंगलवार के दिन मध्याह्नकाल के समय कंघी द्वारा श्रृंगार किये गृहिणी के समूल केश लेकर पूर्व कथित तुम्हारे जिस किसी एक मंत्र का जप करता हुआ भक्ति सहित चिताग्नि में अर्पण करता है, वह धरा का अधीश्वर होकर निरन्तर हाथी पर चढ़कर विचरण करता है और व्यास कविकुल की प्रधानता को प्राप्त करता है।

सुपुष्पैराकीर्ण कुसुमधनुषो मन्दिरमहो
पुरो ध्यायन् ध्यायन् यदि जपति भक्तस्तवममुम् |
स गन्धर्वश्रेणीपतिरिव कवित्वामृत – नदी –
नदीनः पर्य्यन्ते परमपदलीनः प्रभवति ।।

टीका – हे जगन्माता! साधक यदि स्वयं फलों से रंजित कामगृह को अभिमुख करके मंत्रार्थ के सहित तुम्हारा ध्यान करते हुए पूर्व कथित किसी एक मंत्र का जप करे, तो वह कवित्वरूपी नदी के सम्बन्ध में समुद्रस्वरूप होता है, और महेन्द्र की समानता प्राप्त करता है । वह शरीरांत के समय तुम्हारे चरण-कमलो में लीन होकर जो स्वरूप मुक्ति को प्राप्त हैं, इसमें कोई विचित्रता नहीं है ।

त्रिपञ्जारे पीठे शवशिवहृदि स्मेरवदनां
महाकालेनोच्चैर्मदनरसलावण्यनिरताम्
महासक्तो नक्तं स्वयमपि रतानन्दनिरतो
जनो यो ध्यायेत्त्वामयि जननि स स्यात्स्मरहरः । ।

टीका – हे जगन्माता! तुम्हारे मुखमण्डल पर मृदुहास्य विराजमान है, तुम सदाशिव के संग विहार सुख का अनुभव करती हो, जो साधक रात्रि में अपना विहार सुख अनुभव करता हुआ शव हृदयरूप आसन पर पांच दशकोण युक्त तुम्हारे यंत्र में तुम्हारी पूर्वोक्त प्रकार से चिन्तन करता है, वह शीघ्र ही शिवत्व लाभ करता है ।

सलोमास्थि स्वैरं पललमपि मार्जारमसिते
परञ्चौष्टं मैषं नरमहिषयोश्छागमपि वा ।
बलिन्ते पूजायामपि वितरतां मर्त्यवसंतां
सतां सिद्धिः सर्व्वा प्रतिपदमपूर्व्वा प्रभवति ।।

टीका – हे जननि! पृथ्वीवासी साधकगण यदि तुम्हारी पूजा में बिल्ली का मांस, ऊँट का मांस, नरमांस, महिषमांस अथवा छागमांस को रोमयुक्त और अस्थियों के सहित अर्पण करें, तो उनके चरणकमल में आश्चर्यजनक विषय सिद्ध होते हैं ।

वशी लक्षं मन्त्रं प्रजपति हविष्याशनरतो
दिवा मातर्युष्मच्चरणयुगलध्याननिषुणः ।
परं नक्तं नग्नो निधुवनविनोदेन च मनुं
जनो लक्षं स स्यात्स्मरहरसमानः क्षितितले ।।

टीका – हे जगन्मातः! जो इन्द्रियों को अपने वश में रखकर हविष्य भोजन पूर्वक प्रातःकाल से दिन के दूसरे प्रहर तक तुम्हारे दोनों चरणों में चित्त लगाकर जप करते हैं और पशु भावानुसार एकलक्षय जपरूप पुरश्चरण करते हैं, अथवा जो साधक रात्रिकाल में नग्न और विहारपरायण होकर वीर साधनानुसार एक लक्ष जपरूप पुरश्चरण करते हैं, यह दोनों प्रकार के साधक पृथ्वीतल में स्मरहर शिव की भाँति सुशोभित होते हैं ।

इदं स्तोत्रं मातस्त्वमनुसमुद्धारणजप:
स्वरूपाख्यं पादाम्बुजयुगलपूजाविधियुतम् ।
निशार्द्ध वा पूजासमयमधि वा यस्तु पठति
प्रलापे तस्यापि प्रसरति कवित्वामृतरसः ।।

टीका – हे जननि! मेरे द्वारा किये इस स्तव में तुम्हारे मंत्र का उद्धार और तुम्हारे स्वरूप का वर्णन हुआ है । तुम्हारे चरणकमल की पूजाविधि का भी इसमें उल्लेख किया गया है । जो साधक निशाद्विप्रहर काल में अथवा पूजाकाल में इस स्तव का पाठ करता है, उसकी निरर्थक वाणी भी प्रबन्ध रूप में परिणित होकर कवित्वरूप सुधारस प्रवाहित करती है ।

कुरङ्गाक्षीवृनदं तमनुसरति प्रेमतरलं
वशस्तस्य क्षोणीपतिरपि कुवेरप्रतिनिधिः ।
रिपुः कारागारं कलयति च तत्केलिकलया ।
चिरं जीवन्मुक्तः स भवति च भक्तः प्रतिजनुः ।।

टीका – मृगनयनी (मृग के समान नेत्रों वाली) स्त्रियाँ इस स्तव पढ़ने वाले साधक को प्रियतम जानकर उसकी अनुगामिनी होती हैं । कुबेर के समान राजा भी उसके वश में रहते हैं और उस साधक के शत्रुगण कारागर में बन्द होते है । वह साधक जन्म-जन्म में जगदम्बा का भक्त होता है और सर्वकाल महा आनन्द से विहार करके शरीरांत में मोक्ष प्राप्त करता है ।

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