मोक्ष की परिभाषा | मोक्ष का अर्थ | मोक्ष प्राप्ति का मार्ग | स्थितप्रज्ञ का अर्थ | स्थितप्रज्ञ कैसे बने | moksh kya hai | moksh ka arth kya hai
मोक्ष की परिभाषा | मोक्ष का अर्थ
मोक्ष का अर्थ है कि हम बार-बार इस दुनियाँ में न आएँ और इस जन्म में ही मृत्यु के बाद परम प्रभु में विलीन हो जाएँ तथा निरन्तर उनके उस आनन्द को भोगते रहें, जो इस संसार के सारे भौतिक सुखों से बढ़कर है । दुनियाँ के सुख आज हैं, कल नहीं, चिर-स्थायी नहीं है । वह सुख कभी क्षीण होने वाला नहीं है और युग-युगान्तर तक हमारे साथ रहेगा । इस तरह संसार में बार-बार आकर दुःख भोगने से छुटकारा मिल जाएगा ।
मोक्ष प्राप्ति का मार्ग
जीव बार-बार जन्म लेता है अर्थात् पुनर्जन्म होता है, इसका यही प्रमाण है । जब ब्रह्मात्मैक्य का पूरा ज्ञान हो जाता है, आत्मा का ब्रह्म में लीन हो जाना, तब आत्मा ब्रह्म में मिल जाती है और ब्रह्मज्ञानी पुरुष आप ही ब्रह्मरूप परन्तु ब्रह्मा नहीं हो जाता । इस आध्यात्मिक अवस्था को ‘ब्रह्म निर्वाण’ ‘मोक्ष’ कहते हैं । ‘मोक्ष’ आत्मा की मूल शुद्ध अवस्था है। अर्थात् जब समाधि लगाते-लगाते अचानक प्रभु का दर्शन हो जाता है तब आत्मा और प्रभु की अलग-अलग स्थिति मिट जाती है । आत्मा फिर उस व्यक्ति के बाद, दोबारा संसार में जन्म नहीं लेती । वह परमात्मा के आनन्द में ही मग्न रहती है । इसी को ‘मोक्ष’ कहते हैं ।
जो मनुष्य निष्काम भाव से यथाप्राप्त विषयों का सेवन करता है, वही सच्चा ‘स्थितप्रज्ञ’ है । निष्काम भाव का अर्थ है संसार के सारे कार्य प्रभु की आज्ञा समझ कर संसार के कल्याण के लिए करते रहना चाहिए तथा हानि या लाभ में ‘सम रहो’ अर्थात् हानि होने पर दुःख और लाभ होने पर प्रसन्नता न हो । इसी तरह भौतिक सुखों के भोगते समय प्रभु की कृपा, दयालुता नहीं भूलनी चाहिए ।
स्थितप्रज्ञ का अर्थ | स्थितप्रज्ञ कैसे बने
दुःख में प्रभु या अपने भाग्य को दोष नहीं देना चाहिए । यही सोचना चाहिए कि भगवान भेदभावरहित है । हम अपने पिछले कर्मों का फल भोग रहे हैं । इस प्रकार हर क्षण आप परमपिता परमात्मा में लीन हैं; इसी को ‘स्थितप्रज्ञ’ कहते हैं ।
जब सृष्टि का प्रलय होता है, तब भी कर्म बीज के रूप में बना रहता है। फिर पूर्ववत कुर फूटने लगते हैं । ‘महाभारत’ का कथन है कि पूर्व सृष्टि में प्रत्येक प्राणी ने जो-जो कर्म किए होंगे, वे ही कर्म उसे (चाहे उसकी इच्छा हो या न हो) फिर यथापूर्वक प्राप्त होते रहते हैं । (महाभारत शान्तिपर्व 231,48,49 और गीता 8, 18, 19)। आत्मा न जन्म धारण करती है, न मरती है । अर्थात् वह अजर अमर है । परन्तु जीव को ‘कर्म-बन्धन’ में फँस जाने के कारण, कर्मफल भोगना पड़ता है । इतना ही नहीं, इस जन्म में जो कुछ किया जाय तो उसे अगले जन्म में भोगना पड़ता है । ‘मनुस्मृति’ तथा ‘महाभारत’ में कहा गया है कि इन कर्मों को न केवल हमें बल्कि कभी-कभी हमारी देह से हमारे पुत्रों, पौत्रों और नातियों को भी भोगना पड़ सकता है ।
योग का अर्थ है – प्रभु से मिलने की व्याख्या । योग के अभ्यास का अर्थ आप केवल व्यायाम से न लगा लें । यहाँ इसका अर्थ समाधि से ही है । अर्थात् प्रभु से मिलन का योग (जुड़ना) । आधुनिक विज्ञान में विश्वास रखनेवाले व्यक्ति इस प्राचीन विचारधारा पर एकाएक ही विश्वास कर पाएँ, यह सम्भव नहीं है ।
जहाँ पर हमारे ऋषिमुनि पहुँच चुके थे, वहाँ पर अभी आधुनिक विज्ञान का पहुँच पाना असम्भव है । अभी आधुनिक अन्वेषकों को इस ओर अथक परिश्रम करना पड़ेगा । तब भी वे इसका एक छोर भर ही पकड़ पाएँगे ।