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रूब्रुक के विलियम | गुइल्यूम डी रूब्रुक | William of Rubruck Biography | Friar William of Rubruck
१३वीं शताब्दी के मध्य में पेरिस के राजा लुई नवम् (Louis-9) के दरबार में फ्राइर विलियम नाम का एक व्यक्ति अनेक वर्षों से रहता आ रहा था । वह राजा के विश्वासपात्र व्यक्तियों में से एक था । एक दोपहर राजा ने उसे एक संदेश भेजा, जिसमें राजा ने उससे कहा था कि, “तुम्हें मेरे लिए एक खतरों-भरी यात्रा करनी है । यह यात्रा एशिया की मंगोल जाति के लिए होगी । वहां एक सरताक (Sartach) नाम का सरदार है, जो ईसाई है । मैं चाहता हूं कि तुम उसके पास जाओ और वहां रहकर लोगों को ईसाई धर्म के विषय में उपदेश दो ।“
राजा के इन शब्दों से रूब्रुक के विलियम के मन में उत्तेजना और भय की मिली-जुली प्रक्रिया हुई । उसे पता था कि कुछ ही यूरोपवासी एशिया में प्रवेश कर पाये हैं । एशिया की धरती पर खूंखार मंगोल जाति का जाल बिछा हुआ है । यह जाति चीन से आयी है ।
रूब्रुक के विलियम मंगोलों के जंगलीपन के विषय में जानता था । लेकिन उसे एक ही आशा थी कि यदि इस जाति का एक सरदार ईसाई है तो शायद वह उन्हें ईसाई धर्म की शिक्षा दे सकने में सफलता प्राप्त कर सके । इस आशा के आधार पर उसने राजा से यात्रा पर जाने के लिए हां कर दी ।
यात्रा के प्रथम चरण में फ्राइर और उसके साथियों को कांस्टेंटीनोपल (Constantinople) के बंदरगाह तक ले जाया गया । वहां से फ्राइर विलियम तीन और व्यक्तियों के साथ समुद्री यात्रा के लिए चल पड़ा और मई, १२५३ में मंगोल साम्राज्य की सीमा रूस पर जा पहुंचा । वहां से घोड़ों पर चढ़कर वे तीनों व्यक्ति आगे चले । वे उन शहरों से होते हुए आगे बढ़ने लगे, जो मंगोलों ने नष्ट कर दिये थे और वहां व्यक्तियों के स्थान पर अब केवल हड्डियों के ढेर थे ।
यात्रा के तीसरे दिन उन्होंने अपने सामने एक धूल का बादल उठता हुआ देखा । दरअसल वह मंगोलों की एक टुकड़ी थी, जो उनकी ओर बढ़ रही थी । रूब्रुक के विलियम और उसके साथी डर के मारे खड़े हो गये और क्षण भर में उन्होंने अपने आप को चारों ओर से मंगोलों द्वारा घिरा हुआ पाया । ये मंगोल लड़ाकू बड़ी अजीब-सी वेश-भूषा में थे । उनके सिर ढके हुए थे, चेहरों का रंग पीला और आंखें तिरछी थीं । कुछ के हाथों में तलवारें थीं तो कुछ के हाथों में तीर-कमान ।
उनमें से एक ने उनसे घुड़ककर पूछा-“कौन हो तुम ? कहां से आये हो और कहां जा रहे हो?” फ्राइर ने उत्तर दिया- “हम पेरिस के राजा लुई नवम् के दरबार से आये हैं । हमने सुना है कि तुम्हारा एक सरदार, जिसका नाम सरताक है, एक ईसाई है । क्या तुम हमें उसके पास ले चलोगे ?” दल के मुखिया ने जवाब दिया- “हम तुम्हें इतनी दूर नहीं ले जा सकते, लेकिन हम तुम्हें अपने दूसरे सरदार सिते (Scitay) के पास अवश्य ले चलेंगे।”
रात भर मंगोलों के साथ यात्रा करके प्रातः होते-होते फ्राइर और उसके साथी सिते के खेमे पर पहुंच गये । यह बैल-गाड़ियों का खेमा था, जिसमें सैकड़ों बैल-गाडिया थी, जिन पर तम्बू लदे थे । यह देखकर फ्राइर को बड़ा आश्चर्य हुआ कि ये कैसे विचित्र लोग हैं, जो धरती पर मकान बनाकर नहीं रहते बल्कि तंबुओं के रूप में अपने मकानों को साथ लिए फिरते हैं । सारे दिन फ्राइर का दल इन खानाबदोशों के साथ यात्रा करता रहा और शाम को जब मंगोलों ने अपने तम्बू लगा लिए तब फ्राइर को सिते के तंबू में ले जाया गया ।
सरदार एक चारपाई पर बैठा हुआ था और उसके तम्बू के पुरुष और महिलाएं जमीन पर बैठे हुए थे । रूब्रुक के विलियम भी उन लोगों के साथ जमीन पर बैठ गया ।
रूब्रुक के विलियम ने उसे बिस्किट और शराब भेंट के रूप में दिये । सिते ने उसे घोड़ी का दूध पेश किया, जिसे फ्राइर ने पी लिया । सिते ने उनके आने का कारण पूछा तो फ्रांइर ने सरताक से मिलने की अपनी इच्छा प्रकट की । उसने फ्राइर और उसके साथियों को सरताक के पास पहुंचाने के लिए उनकी यात्रा का प्रबंध कर दिया । कई दिन की यात्रा करके फ्राइर विलियम सरताक के कैंप में पहुंचा ।
उसने ईसाइयों की ड्रेस पहनकर सरताक के तंबू में प्रवेश किया । अभिवादन आदि की औपचारिकताएं पूरी करने के बाद रूब्रुक के विलियम ने सरताक को अपने आने का उद्देश्य बताया । एक दिन तक उसने कोई जवाब नहीं दिया । फिर उसने कहा “यदि तुम्हें ईसाई धर्म की शिक्षाएं देनी हैं तो इसके लिए तुम्हें मेरे पिता बात् (Batu) से आज्ञा लेनी होगी । कई दिन की यात्रा करके फ्राइर बात के पास पहुंचा । बात से बात करने के बाद यह परिणाम निकला कि उसे मंगोलों के सरदार मंगखान (Mangu Khan) के पास जाकर प्रार्थना करनी होगी । उसे बताया गया कि मंगखान तक पहुंचने के लिए उसे चार महीने की यात्रा करनी होगी । भूखा-प्यासा फ्राइर विलियम चार महीने तक यात्रा करके २३ दिसंबर, १२५३ को मंगूखान के खेमे तक पहुंचा ।
मंगूखान से मिलने पर उसने वही प्रार्थना दोहरायी । मंगखान ने उसकी प्रार्थना ठुकरा दी, लेकिन उसे जाड़े का मौसम बिताने के लिए अपने तम्बू में रुकने का आदेश दिया । बसंत ऋतु आते ही फ्राइर से कहा गया-“अब आप वापस चले जाइए, मंगोलों का अपना देवता है, जिसकी हम पूजा करते हैं और हमारा ईसाइयों के देवता में कोई विश्वास नहीं है ।“
फ्राइर विलियम वापस चल पड़ा और थका-टूटा सन् १२५५ में पेरिस पहुंचा । वह मंगोलों को ईसाई बनाने के अपने उद्देश्य में असफल रहा, लेकिन उसकी यात्रा असफल सिद्ध नहीं हुई । वह अपनी यात्रा से मंगोलों के विषय में अनेक जानकारिया एकत्रित कर लाया था, जो बाद के खोज-यात्रियों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण सिद्ध हुई ।