आर्य सभ्यता क्या है । आर्य सभ्यता का काल । वैदिक सभ्यता । वैदिक काल | Aryan Civilization | Aryan Civilization History | Vaidik Kal
इण्डो-आर्य सभ्यता अनिवार्य रूप से भौतिक (Material) थी । ऋग्वेद के महान् ज्ञानी प्रणेता कोरे अध्ययनशील ही नहीं वरन् व्यावहारिक भी थे । यही वह सभ्यता है, जो २००० ई.पू. से ७०० ई.पू. तक रही । यह सभ्यता अपने आरंभिक युग अर्थात् २००० ई.पू. से १००० ई.पू. तक के समय में विभिन्न कलाओं के विकास के क्षेत्र में अपना वह स्थान नहीं बना सकी, जैसा कि मिस्र तथा बेबीलोनिया की सभ्यताओं ने बनाया था । हमें इस युग की एक भी मूर्ति, चित्रकला या स्मारक प्राप्त नहीं हुआ है । हां, उन्होंने अपनी भाषा संस्कृत को अभिव्यक्ति के एक विशिष्ट स्तर तक अवश्य पहुंचा दिया तथा वे अपने पीछे वेदों के रूप में एक महान् साहित्यिक परंपरा छोड़ गये ।
आर्य कौन थे । आर्य वंश
आर्य भारत के मूल निवासी नहीं थे । वे मध्य एशिया से आये थे । आर्यो के द्वारा हुए आक्रमण के समय भारत में द्रविड़ जाति रहती थी । आज भी इस जाति के वंशज दक्षिण भारत में मद्रास के आसपास पाये जाते हैं ।
इतिहासकारों के अनुसार जब आर्यों ने खाद्य पदार्थों की कमी अनुभव की तो वे अन्य देशों में भी फैल गये । भारत में ये लोग कश्मीर के पर्वतों से होकर अनेक समूहों में आये थे । प्रारंभिक युग में इण्डो-आर्य युद्ध तथा लूटमार की भावनाओं से अत्यधिक ओतप्रोत थे । असभ्य जातियों के नाश के लिए प्रायः ईश्वर को याद किया जाता था, जिन्हें आर्य ‘श्याम वर्ण’ के दस्यु या दास कहा करते थे । आर्य एक शक्तिशाली योद्धा जाति थी । अतः ये न केवल तत्कालीन तथाकथित असभ्य जातियों से लड़े, बल्कि परस्पर भी लड़े । यहां तक कि देवताओं को भी विभिन्न योद्धाओं के रूप में ही व्याख्यायित किया गया जैसे-पितृ, विवस्वन, यम, विष्णु आदि ।
इण्डो-आर्य सभ्यता (२००० ई.पू. से ७०० ई.पू.) अन्य सभ्यताओं से भिन्न थी । जब अन्य सभ्यताएं ललित कला तथा वास्तुकला के विकास में व्यस्त थीं, उस समय यह सभ्यता दर्शन की संरचना में व्यस्त थी । उसका यही दर्शन बाद में “ हिन्दू दर्शन ” का मूल आधार बना । समय के साथ-साथ आर्यों की यह महान् सभ्यता हास की ओर अग्रसर होने लगी और अंत में यह एक अंधेरे मार्ग की ओर प्रवृत्त हो गयी ।
वैदिक सभ्यता । वैदिक काल
प्रारंभिक वैदिक लोग मुख्यतः हिंसक प्रवृत्ति के थे तथा सांसारिक वस्तुओं के उपभोग में मस्त रहते थे । वे विलासपूर्ण जीवन व्यतीत करते थे तथा उनका सारा समय आमोद-प्रमोद में ही बीतता था। वे सोम नामक पौधे के रस से तैयार मंदिरा का बहुत चाव से सेवन करते थे ।इस नशीले पौधे की एक देवता के रूप में पूजा भी की जाती थी । यहां तक कि ऋग्वेद का पूरा एक खंड ही इसी विषय को समर्पित है ।
कला के क्षेत्र में वैदिक लोग मिस्र तथा बेबीलोनिया से पीछे रहे हैं । हमें बहुमूल्य फनींचरयुक्त सुन्दर घरों या गुम्बदों के कोई उदाहरण नहीं मिले । ऋग्वेद में बढ़ईगिरी, कताई-बुनाई, ब्लीचिंग, सोने के आभूषण, लोहे तथा चमड़े के बर्तन तथा युद्ध के हथियारों का उल्लेख तो मिलता है किन्तु भवनों, मूर्तियों तथा स्तंभों की कोई चर्चा नहीं की गयी है । वास्तव में, जिस प्रकार बेबीलोनिया तथा मिस्र में मूर्तियों तथा चित्रों को अत्यधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता था, उसी प्रकार इण्डो-आर्य युग में काव्य को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था ।
अन्य समुदाय की अपेक्षा वैदिक समुदाय के लोग कहीं अधिक स्वतंत्रता का उपभोग करते थे । वैदिक युग के प्रारंभिक काल में सीमित राजतंत्र हुआ करते थे । आर्यो का साम्राज्य छोटे-छोटे राज्यों में बंटा हुआ था । इनके राजा का चुनाव एक समिति द्वारा होता था । इनके समाज में स्त्रियों का सम्मानपूर्ण स्थान था । वे शिक्षित थीं और ऋग्वेद की अनेक ऋचाएं इनके द्वारा रची गयी थीं । मिथिला नरेश जनक द्वारा आयोजित वेदान्त पर हुई एक सभा में विदुषी गार्गी ने ऋषि यज्ञवाल्क्य से वाद-विवाद किया था । उस समय बाल-विवाह नहीं होते थे और स्त्रियों को अपनी इच्छा से विवाह करने की स्वतंत्रता भी थी ।
इस काल में जाति प्रथा जैसी कोई व्यवस्था भी नहीं थी । प्रतिभाशाली का सम्मान था । जो ऋचाओं की रचना कर सकता था, वही ब्राह्मण था- जिसका शाब्दिक अर्थ था विद्वान । अस्त्र-शस्त्र के क्षेत्र में निपुणता प्राप्त करने वाले को ” क्षत्रिय ” कहा जाता था । दोनों ही तरह के लोगों को ” विश ” कहा जाता था। संभवतः इस शब्द का प्रयोग सभी संभ्रांत लोगों के लिए किया जाता था ।
ऋग्वेद काल
१००० ई.पू. के पश्चात् का काल ऋग्वेद का काल माना जाता है । इस काल में ज्ञान, खगोल विज्ञान तथा व्याकरण के क्षेत्र में काफी उन्नति हुई । इसी काल के दौरान हिन्दू-दर्शन के बीज बोए गये तथा सत्यवादिता को बहुत अधिक महत्त्व प्रदान किया गया । सत्यवादिता पर इतना अधिक बल दिया जाता था कि प्रसिद्ध जर्मन दार्शनिक मैक्समूलर ने इस संबंध में टिप्पणी दी है कि ” भारतीय दार्शनिकों की जिस विशेषता की मैं प्रशंसा करता हूं, वह यह है कि वे कभी भी हमें अपने सिद्धांतों तथा नियमों के निष्कर्षों के संबंध में धोखा देने की चेष्टा नहीं करते । “
सांख्य, योग, न्याय तथा वैशेषिक दर्शन की ये चार व्यवस्थाएं आज भी भारतीय दर्शन की प्रमुख कीर्ति-स्तंभ हैं । इन चारों व्यवस्थाओं में हम आज के युग के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण वैज्ञानिक सत्यों को पाते हैं । इतने बड़े-बड़े ग्रंथों के होते हुए भी उस समय की आर्थिक प्रगति के विषय में हमें कोई निश्चित जानकारी नहीं मिली है । हम केवल इतना जान सके हैं कि उस समय भी साहूकार द्वारा ऋण दिये जाने की व्यवस्था प्रचलित थी तथा जमानत पर दिये जाने वाले ऋण की दर १५ प्रतिशत वार्षिक हुआ करती थी ।
अन्य सभी सभ्यताओं के समान इण्डो-आर्य सभ्यता का भी पतन हुआ । समय बीतने के साथ-साथ वे ऋचाएं, जिनका गान किया जाता था, अप्रचलित होती गईं । आर्यों ने धीरे-धीरे अपने अधिकार क्षेत्र को बड़ा कर लिया और उनकी जनसंख्या भी बढ़ती गयी । इसी के साथ वर्ण-व्यवस्था का दुष्चक्र भी आरंभ हो गया । आर्य लोग चार वर्गों में बंट गये – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । शूद्र वर्ग को सभी प्रकार के विशेषाधिकारों से वंचित रखा गया था । इस वर्ग का एकमात्र कर्त्तव्य अन्य तीन उच्च वर्गों की सेवा करना था । इस निम्न वर्ग की दुर्दशा से कुछ विवेकपूर्ण लोग विचलित हो गये । परिणामस्वरूप इस निम्नवर्ग के उत्थान के लिए दो सामाजिक धार्मिक आंदोलन (Socio-religious Movements) बौद्ध धर्म तथा पौराणिक हिन्दू धर्म के रूप में सामने आये । वह महान् इण्डो-आर्य सभ्यता, जिसकी महानतम देन विशाल साहित्य-संग्रह तथा संस्कृत भाषा थी, छिन्न-भिन्न हो गयी ।