स्पर्श से जान जाना | दिव्य दृष्टि से देखना | Divya Drishti
रोजा कुलेशोवा नामक एक लड़की सन् १९६२ के नवम्बर महीने के ब्रितानी अखबारों की सुर्खियों में छा गई थी । उस समय उसकी आयु मात्र २२ साल की थी । वह रूस के यूरेल्स प्रांत में निजनीटागिल की रहने वाली थी ।
एक बार एक मनोरोग विशेषज्ञ गोल्डवर्ग अपने स्वेर्देलोव क्लिनिक में बैठे थे कि एक लड़की मिरगी के इलाज के लिए लाई गई । इसी इलाज के दौरान यह रहस्य खुला कि रोजा कुलेशोवा अपनी अंगुलियों से देख सकती है ।
डॉ. गोल्डबर्ग ने रोजा की मिरगी तो ठीक कर दी, परन्तु अब खुद परेशानी में पड़ गया कि आखिर यह लड़की अंगुलियों से “देख” कैसे पाती है । सितंबर, १९६२ में मनोविशेषज्ञों की एक सभा बुलाई गई । रोजा कुलेशोवा की आंखों पर पट्टी बांध दी गई तथा भरी सभा में सबको चमत्कृत करती हुई रोजा ने छपे हुए पन्ने पढ़ने शुरू किए, रंग तथा तस्वीरें पहचाननी शुरू की, यहां तक कि उसने डाक टिकट पर छपा हुआ छोटा-सा चित्र भी ठीक-ठीक पहचान लिया । कोई भी चीज हो, वह उस पर दाएं हाथ की अंगुली फेरती तथा बिना सोचे, बिना रुके, झट से बता देती कि क्या बना है, लिखा है या छपा है ।
पहले तो ऐसा लगा कि रंगों की पहचान रोजा उनसे निकलने वाली प्रकाश के भिन्न तरंगों के आधार पर कर रही है तथा इसके साथ-साथ सतह को छूकर स्पर्शेन्द्रिय का भी लाभ उठा रही है, पर बाद में जब कागज के ऊपर कांच की चादर रख दी गई, तो देखा गया कि रोजा की अंगुलियां शीशे के पार भी देख लेती हैं, वस्तु को छुए बिना पहचान लेती हैं और सीधे-सपाट शीशे पर पड़ रही रंगीन रोशनियों को भी पढ़ लेती हैं । फिर सोचा गया कि कहीं काली स्याही में छपे अक्षर तथा सफेद कागज के बीच ऊष्मा का जो अंतर है, उसके आधार पर अंगुलियां भेद कर लेती हों । लेकिन ऊष्मा का वहन करने वाला इन्फौड (अवरक) घटक निकाल देने के बाद भी अंगुलियों की क्षमता में कोई अंतर नहीं आया ।
हारकर वैज्ञानिकों को यह मानना पड़ा कि रोजा की अंगुलियों की त्वचा आंखों की तरह प्रकाश के आधार पर ही वर्ण भेद कर रही हैं ।