समुद्र की गहराई | समुद्र की गहराई में पाए जाने वाले जीव | WILLIAM BEEBE
हमारी इस विशाल पृथ्वी का दो तिहाई से भी ज्यादा हिस्सा समुद्र के रूप में जल ने घेर रखा है । समुद्र में पृथ्वी से भी ज्यादा जीव अपना अस्तित्व बनाए हुए हैं । ये सभी जीव मिलकर एक अद्भुत एवं रोचक संसार को जन्म देते हैं । ऐसा नहीं कि समुद्र में मौजूद जीवन केवल उसकी सतह या तल पर ही विचरता हो, हकीकत तो यह है कि समुद्र की अनंत गहराइयों में भी जीवन है । समुद्र की सतह से ज्यों-ज्यों हम नीचे, गहराइयों की ओर जाते हैं, त्यों-त्यों सूरज का प्रकाश कम पड़ता जाता है । पानी में गहराई पर जाने पर रोशनी का कम होने का यह सिलसिला बड़ा ही रोचक होता है ।
एक गोताखोर कुछ ही “फेदम” (गहराई नापने की करीब २ मीटर की नाप) गहरा गोता लगाने के बाद लाल रंग नहीं देख पाता । यह इसलिए होता है, क्योंकि एक निश्चित गहराई के बाद पानी अपने में से होकर गुजरने वाले सूर्य के प्रकाश के लाल रंग को पूर्ण रूप से अवशोषित कर लेता है और अधिक गहराई में जाने पर नारंगी एवं पीले रंग के साथ भी यही होता है । शीघ्र ही एक ऐसी स्थिति आती है, जब हर चीज कालापन लिए गहरे नीले रंग में रंग जाती है । अगर कोई व्यक्ति किसी तरीके से सागर में कुल ६०० मीटर तक नीचे जाए तो उसे वहां पूर्ण अंधकार के सिवा और कुछ भी नजर नहीं आएगा ।
“ वह क्या चीज होगी, जो इतने अंधकार में रहती होगी ? “ वैज्ञानिक अक्सर यह पूछा करते हैं । अपने इस सवाल के जवाब को पाने के लिए उन्होंने समुद्र में जाल और ‘ड्रेजर्स’ (सीपियों आदि को खोजने वाला एक विशेष जाल) डाले, ताकि मछलियों एवं अन्य समुद्री जीवों को पकड़ सकें । इन जालों की पकड़ ने यह तो साबित कर दिया कि समुद्र की काली एवं गहराई में भी कुछ जीव विचरते हैं, परंतु जालों में पकड़े गए समुद्री जीवों की संख्या इतनी कम थी कि वैज्ञानिक यह सोचने लगे कि शायद समुद्र की इतनी गहराइयों में कोई जीवन था ही नहीं । हर समय इन वैज्ञानिकों के मन में एक ही बात रहती थी कि काश वे किसी को सागर कि उन गहराइयों तक भेज सकते, जो वहां के हालात अपनी आंखों से देख सके । यह सब इसलिए भी जरूरी था, क्योंकि एक वैज्ञानिक तभी किसी चीज के बारे में निष्कर्ष निकाल सकता था, जबकि उस कथित चीज को अपनी आंखों से स्पष्ट देखा हो और जो अपने साथ उसका स्पष्ट हुलिया ला सके अथवा उसे चित्रित कर उसकी वैज्ञानिक सूचना दे सके, परंतु इस काम में जो सबसे बड़ा अड़ंगा था, वो था खुद समुद्र ।
समुद्र की सतह से तीन सौ मीटर नीचे जाने पर पानी का दबाव खतरनाक रूप से बढ़ जाता है । यह दबाव किसी भी वस्तु पर चालीस किलोग्राम प्रति वर्ग से. मी. के हिसाब से पड़ता है । यह तय है कि इतने दबाव के नीचे किसी भी व्यक्ति का जीवित बचे रहना नामुमकिन है । समुद्र में आठ सौ मीटर नीचे यही दबाव कुल अस्सी किलोग्राम प्रति वर्ग से.मी. के हिसाब से बढ़ जाता है । इस हिसाब से किसी इंसान का वहां होने पर उसका क्या हाल होगा ? स्पष्ट है ?
एक व्यक्ति ने इस सवाल का जवाब तलाशना शुरू किया । उसने एक ऐसी चीज बनाई, जिसके अंदर बैठकर एक व्यक्ति समुद्र में आठ सौ मीटर की गहराई तक जा सकता था और जिंदा लौटकर भी आ सकता था । यह उपकरण “वैथिस्फेयर” था वैठीस्फेयर वस्तुतः अंदर से खोखली एक स्टील निर्मित “बॉल” थी । इसमें कुल दो व्यक्तियों के बैठने की जगह थी | अंदर बैठे ये दो व्यक्ति “वैथिस्फेयर” की ठोस “क्वार्ट्ज” (स्फटिक) निर्मित खिड़कियों में से सर्चलाइटों की मदद से अपने आसपास तैर रहे जीव-जंतुओं को निहार सकते थे ।
सन् १९५४ में वैथिस्फेयर के आविष्कारकर्ता औटिस वार्टन नामक एक अमेरिकी ने यह विश्वास जताया कि वह सागरीय जीवन विशेषज्ञ डॉ. विलियम बीवे (WILLIAM BEEBE) के साथ अपने उपकरण में सागर सतह से कुल ८०० मीटर नीचे तक जा सकेगा ।
बरमूडा के तट से दूर, जहां समुद्र की गहराई सवा तीन किलोमीटर से भी ज्यादा है, बीबे एवं बार्टन ने समुद्र की इस रहस्यमय काली एवं गहरी दुनिया को देखने के लिए तैयारियां शुरू कर दीं । वह अनंत अंधकार एवं भयानकता की हद तक दबाव की दुनिया थी ।
समुद्र की उस अनदेखी गहराई में जाने से पहले इन दोनों ने बेथिस्फेयर को जांचने के लिए उसे खाली ही नीचे भेजा । वैथिस्फेयर एक केबल से बंधा सागर की गहराई में उतरने लगा, फिर जब बड़ी ड्रमनुमा मशीन पर लिपटी केबल खत्म होने को आई, अर्थात् जब वैथिस्फेयर पर्याप्त गहराई में जा पहुंचा, तब मशीन को वापस लपेटने के लिए लगे स्विच को दबा दिया गया । स्टील निर्मित वह विशाल गेंद, वैथिस्फेयर धीरे-धीरे सागर की गहराइयों से ऊपर सतह की तरफ आने लगा । जैसे ही पानी से बाहर निकला, हर किसी ने देखा कि कुछ गड़बड़ हो चुकी है । बेथिस्फेयर कुछ ज्यादा ही वजनी हो गया था, उसे खींचने वाली केबल बुरी तरह से तन गई थी, फिर जब उसे जहाज के डेक पर उतारा गया, तो बीबे ने उसकी ठोस स्फटिक निर्मित खिड़कियों में से अंदर देखा । बैथिस्फेयर अंदर से लगभग पूरा का पूरा पानी से भरा था ।
वैथिस्फेयर के डेक पर स्थिर होते ही डॉ. बीवे उसके दरवाजे के मध्य में स्थित बोल्ट को खोलने लगे । जरा सा खोलते ही अंदर मौजूद पानी गुस्सैल कीड़ों के झुंड की तरह आवाज करता हुआ बाहर की ओर निकलने लगा । डॉ. बीबे को शीघ्र ही इस बात का अहसास हो गया कि बैथिस्फेयर में मौजूद पानी भारी दबाव लिए था । उन्होंने वहां मौजूद हर किसी को चेतावनी देकर बैथिस्फेयर के सामने से हटा दिया, फिर उस गोलाकार छेदनुमा दरवाजे की एक ओर खड़े होकर खुद बड़ी सावधानी के साथ मुख्य बोल्ट को खोलने लगे । बोल्ट के खुलने में कुछ ही घुमाव बाकी थे । डॉ. बीबे रुक कर आगे होने वाले घटनाक्रम पर विचार करने लगे । अचानक अधखुला बोल्ट गोली की रफ्तार से उछला और डॉ. बीबे के हाथ में पकड़े हुए पाने से टकराता हुआ डेक की तरफ निकल गया । डॉ. बीबे ने देखा की बोल्ट की टक्कर से हाथ में पकड़ा पाना मुड़ गया था और उसमें गहरी खरोंच आ गई थी । बोल्ट के अपनी जगह से हटते ही उस छेद से पानी किसी तेज कटार की तरह बाहर की तरफ उबल पड़ा । पानी की रफ्तार इतनी तेज थी कि यदि कहीं डॉ. बीबे उस की राह में होते, तो यह निश्चित था कि उनका सिर उनके धड़ पर नहीं होता ।
समुद्र ने अपनी गहराई में मौजूद अपने दबाव को अच्छी तरह से प्रदर्शित कर दिया था । वैथिस्फेयर में मौजूद गड़बड़ को ठीक कर दिया गया । फिर कुछ और परीक्षणों के बाद बीबे और बार्टन बैथिस्फेयर में सवार होकर सागर की गहराई में स्थित उस अनंत रात वाले माहौल की अपनी पहली यात्रा पर निकल पड़े । धीरे-धीरे वैथिस्फेयर सागर की गहराई में नीचे उतरने लगा । दोनों ने धीरे-धीरे हर चीज के रंग को बदलते हुए देखा । आखिरकार वह लम्हा भी आया, जब हर चीज गहरे अंधकार में खो गई और कुछ भी नजर आना बंद हो गया । इस गहरे घने नील जल में डॉ. बीबे ने हलकी रोशनियां देखीं ।
उन्हें पता था कि ये रोशनियां उन समुद्री मछलियों एवं जीवों की वजह से थीं, जो अपने अंदर से इस अद्भुत प्रकाश को छोड़ रहे थे । ये विचित्र चमकने वाले जीव वैथिस्फेयर के आसपास तैर रहे थे । इनके शरीर से फूटने वाला प्रकाश कभी जलता, तो कभी स्वतः ही बंद हो जाता । डॉ. बीवे ने वैथिस्फेयर की सर्चलाइट को चालू कर दिया । उन्होंने उसके प्रकाश में सैकड़ों “पैरो वॉर्म्स” (एक तरह के नन्हे-नन्हे समुद्री जीव) को देखा ।
इन नन्हे जीवों की उपस्थिति उस घने बादल के समान थी, जो सैकड़ों छोटे-छोटे बमों के एक साथ फूटने पर उत्पन्न हो जाया करता है । सागर में तीन सौ मीटर नीचे “फ्लाइंग स्नेल” (एक समुद्री जीव) का एक विशाल झुंड तैरता हुआ मिला । अचानक डॉ. बीबे की नजर एक विशाल साए पर पड़ी । काले रंग में रंगा यह साया सवा मीटर से भी ज्यादा लंबा था । डॉ. बीबे ने शीघ्रता से सर्चलाइट को बंद कर दिया, परंतु उन्हें यह देखकर निराशा हुई कि उस विशाल मछली के शरीर से प्रकाश प्रस्फुटित नहीं हो रहा था । डॉ. बीबे ने एक बार फिर सर्चलाइट को चालू कर दिया । लाइट की रोशनी में दोनों ने एक के बाद एक अनेक मछलियों को देखा और पाया कि गहरे समुद्र में जीवन संबंधी उनके पहले के अनुमान कितने गलत थे । यहां गहरे अंधकार में उनकी आशा के विपरीत जीवन चारों तरफ बिखरा पड़ा था ।
डॉ. बीवे यहां तीन सौ मीटर नीचे तैर रही कई मछलियों से परिचित थे । ये मछलियां अधिकांशतः सागर की सतह पर देखी जाती थीं । आश्चर्य तो इस बात पर था कि सतह पर, जहां दबाव करीब एक किलोग्राम प्रति वर्ग से.मी. होता है, तैरने वाली ये मछलियां यहां इस गहराई में, जहां दबाव चालीस किलोग्राम प्रतिवर्ग से.मी. से भी ज्यादा था, कैसे बिना किसी मुश्किल के तैर रही थीं !
वैथिस्फेयर अब तीन हजार मीटर नीचे गहराई में था । तब भी कई प्रकाशमान जीव यहां-वहां तैर रहे थे । डॉ. बीवे ने सर्चलाइट थोड़ी देर के लिए बंद कर दी, वह अपनी खिड़की से बाहर देख रहे थे, तभी मानो किसी ने उनकी खिड़की पर रोशनी का धमाका-सा किया । इस अद्भुत रोशनी के धमाके को देखकर डॉ. बीबे आश्चर्यचकित हो गए । यह क्या था ? इस बारे में कुछ न जान सके । वैथिस्फेयर नीचे और नीचे जा रहा था ।
समुद्र की इस गहराई में डॉ. बीबे ने एक “ऐंगलर फिश” देखी । इस मछली की नाक के एक सिरे से पतली छड़ नुमा एक अंग निकला हुआ था । इस अंग विशेष का आखरी सिरा बड़े ही चमत्कारी ढंग से प्रकाशमान था । मछली अपने अंग विशेष पर मौजूद प्रकाश की सहायता से छोटी मछलियों को आकर्षित कर उनका भोजन कर रही थी ।
समुद्र की गहराई में साढ़े चार हजार मीटर नीचे पहुंचने पर डॉ. बीबे ने एक बार पुनः सर्चलाइट चालू कर दी । इस बार एक बड़ी ही विलक्षण मछली देखी । पानी में आराम से तैर रही वह मछली विज्ञान के लिए सर्वथा नया जीव थी । मछली पूर्णतः रंगहीन थी । ऐसा लग रहा था, मानों हलका भूरापन लिए कोई पीला कपड़ा तैर रहा है ।
उस अनंत गहराई में जहां सूर्य का प्रकाश भी दुर्लभ था, डॉ. बीबे उस मछली को देखकर भौंचक्के रह गए । उस मछली का नाम “द पॅलिड सेलफिन” (पॅलिड अर्थात् उड़े रंग वाला या जिसका रंग फीका हो चुका हो) रख दिया । फिर और नीचे, सर्चलाइट की सीमा से परे कुछ अजीब होने का आभास हुआ । डॉ. बीबे ने अपनी आंखों पर जोर देकर देखने की चेष्टा भी की, पर सब बेकार वह जो कुछ भी था, वैथिरफेयर के नजदीक आने को तैयार न था ।
वैथिस्फेयर में बैठे वे और नीचे गहराई में जाते रहे । कुछ क्षणों बाद वे अपनी सर्चलाइट बंद कर देते और बैथिस्फेयर में लगे टेलीफोन की मदद से ऊपर जहाज में बैठे अपने साथियों को सागर की गहराइयों में छिपे इस रहस्यमय संसार के बारे में बताते । बड़ी अजीब बात थी कि सागर की अनंत गहराई में रहने वाले ये जीव सर्चलाइट के प्रकाश से भयभीत नहीं थे और तो और वे इससे प्रभावित भी न थे । यह अलग बात थी की उन सबकी आंखें थीं और कुछ की आंखें तो वाकई बड़ी थीं । इनमें से कुछ जीवों के पास उनकी खुद की प्रकाश व्यवस्था थी, जिसकी मदद से वे अपने कार्य को बखूबी अंजाम दे रहे थे ।
जब भी वैथिस्फेयर की सर्चलाइट को बंद कर दिया जाता, तो इन असंख्य प्रकाशमान जीवों के शरीर से निकलने वाला प्रकाश रात्रि में तारों-सा समां बांध देता था । तीन घंटे से भी ज्यादा समय समुद्र की गहराइयों में बिताने के बाद डॉ. बीचे एवं बार्टन वापस ऊपरी सतह पर पहुंचे । दोनों वैथिस्फेयर की मजबूती की वजह से सही-सलामत थे । दोनों ने सागर की गहराइयों में जो कुछ भी देखा था, उसे अपने साथियों को बताने लगे । ऐसा लग रहा था, मानो वे एक अद्भुत एवं सर्वथा नई दुनिया से वापस आए हों ।
अगले कुछ दिनों तक दल ने जालों की मदद से ऐसे अनगिनत जीव-जंतुओं को बाहर निकाला, जो डॉ. बीबे ने देखे थे और जिनके बारे में उन्होंने वैथिरफेवर में मौजूद टेलीफोन से बताया था । दल ने अगली बार बैथिस्फेयर को और गहरे उतारने का निश्चय किया । मशीन पर मौजूद केबल के अनुसार यह गोता करीब आठ सौ मीटर गहरा होना तय था । एक बार फिर डॉ. बीने सागर की उस गहराई में मौजूद उन विलक्षण जीवों को देखकर मोहित होने लगे । आठ सौ मीटर की उस गहराई में भी अनेक जीवों को हरकत करते देखना वाकई एक अविस्मरणीय दृश्य था । वैथिस्फेयर ने निश्चित तौर पर विज्ञान की आंखों को एक नए संसार के दर्शन करवा दिए थे । वैज्ञानिकों ने देखा कि समुद्र के भीतर का जीवन ज्यादा सहिष्णु है और उससे भी कहीं ज्यादा खूबसूरत है । उन्होंने सीखा कि जहां सूरज का प्रकाश भी नहीं पहुंचता, वहां भी प्रकृति ने अपने खुद के प्रकाश की व्यवस्था कर रखी थी । ये प्रकाश स्तंभ एक या दो नहीं, बल्कि हजारों की तादाद में मौजूद थे । उन्हें देखकर ऐसा लगता था, मानो वे आकाश में मौजूद असंख्य तारों को निहार रहे थे ।
मछलियां, जिनके दांतों से रोशनी फूट रही थीं, मछलियां, जिनके शरीर पर तंतुओं की मदद से रोशनी लटक रही थी, मछलियां जिनके शरीर के दोनों तरफ छोटी-छोटी खिड़कियों की तरह प्रकाश फूट रहा था और वे अद्भुत एवं रहस्यमय जीव, जो अपने शरीर से रोशनी का बादल एक धमाके की तरह छोड़ते थे । कहने का तात्पर्य यह है कि सभी कुछ अजीब, अद्भुत और आनंदित कर देने वाला था ।
डॉ. बीबे रोशनी के इन धमाकों को बड़ी मोहकता से निहार रहे थे । वे ठोस स्फटिक की उस खिड़की से बाहर देख रहे थे कि तभी कोई चीज उनकी उस खिड़की से आ टकराई और अगले ही क्षण उनकी वह खिड़की प्रकाश से भर गई, बाहर पानी में मानो रोशनी का एक बादल सा छा गया । डॉ. बीबे ने गौर से देखा कि उस रोशन पुंज के बीचों-बीच एक विशाल झींगा डरा-सा दौड़ लगा रहा था । आखिरकार डॉ. बीबे को उन धमाकेदार रोशनियों का रहस्य समझ में आ गया । जब भी उस विशेष तरह के झींगे को खतरा महसूस होता या कोई उस पर हमला करता, तो वह तुरंत ही रोशनी का एक बादलनुमा धमाका-सा कर देता । उससे निकलने वाली रोशनी किसी चमकदार धुएं की परत की तरह ही होती ।
समुद्र की अतल गहराइयों की वह यात्रा चलती रही । कभी कुछ मोहक, तो कभी कुछ रहस्यमय, कभी कुछ सर्वथा अनदेखा, तो कभी कुछ अजीबो गरीब । बैथिस्फेयर नौ सौ मीटर नीचे पहुंच चुका था । चारों तरफ घना एवं गहरा अंधेरा-ही-अंधेरा था । सागर के इस गहरे अंधकार में अगर कुछ रोशन था, तो उसमें विचरने वाले जीवों का रहस्यमय प्रकाश । बैथिस्फेयर नीचे जा रहा था और उसमें बैठे सागर की अनंत गहराई के वे पहले दृष्टा बड़ी ही मोहकता से उन विलक्षण नजारों को निहार रहे थे ।