तारा साधना विधि । तारा साधना कैसे करें । Tara Sadhna | Tara Sadhna Mantra
अब तारासाधन के मन्त्र, ध्यान, जप, यंत्र, स्तव, होम तथा कवच आदि का वर्णन किया जाता है ।
तारा मंत्र
(१) ह्रीं स्त्री हूँ फट् (२) ओम् हृ स्त्री हूँ फट् (३) श्रीं ह्रीं स्त्री हूँ फट् ।
तीन प्रकार के मंत्र कहे गये हैं, इसमें चांहे जिस किसी मंत्र से उपासना करे ।
तारा ध्यान की विधि मूल संस्कृत में दी जा रही है और फिर उसका भाषा में अर्थ भी लिखा है । साधकों को ध्यान करते समय (मूलमंत्र) संस्कृत का ही उपयोग करना चाहिए ।
प्रत्यालीढपदां घोरां मुण्डमालाविभूषिताम् ।
खर्वा लम्बोदरीं भीमां व्याघ्रचम्मावृतां कटौ ।।
नवयौवनसम्पन्नां पञ्चमुद्राविभूषिताम् ।
चतुर्भुजां ललजिह्वां महाभीमां वरप्रदाम् ।।
खङ्गकर्तृसमायुक्तसव्येतरभुजद्वयाम् ।
कपोलोत्पलसंयुक्त-सव्यपाणि-युगान्विताम् ॥
पिङ्गाग्रैकजटां ध्यायेन्मौलावक्षोभ्यभूषिताम् ।
बालार्कमण्डलाकारलोचनत्रयभूषिताम् ।
ज्वलच्चितामध्यगतां घोरदंष्ट्राकरालिनीम् ।।
स्वावेशस्मेरवदनां ह्यलंकारविभूषिताम् ।
विश्वव्यापकतोयान्तः श्वेतपद्मोपरि स्थितम् ।।
टीका – तारा देवी एक पद (पाँव) आगे किए हुए वीरपद से विराजमान हैं और वे घोररूपिणी, मुण्डमाला से विभूषित सर्वा, लम्बोदरी, भीमा, व्याप्र चर्म पहिरने वाली नवयुवती, पञ्चमुद्रा विभूषित, चतुर्भुजा, चलायमान जिह्वा, महाभीमा एवम् वरदायिनी हैं । इनके दक्षिण दाहिने दोनों हाथों में खड्ग और कैची तथा वाम (बायें) दोनों हाथों में कपाल और उत्पल विद्यमान है । इनकी जटायें पिंगल वर्ण, मस्तक में क्षोभरहित शोभित और तीनों नेत्र तरुण-अरुण के समान रक्तवर्ण हैं । यह जलती हुई चिता में स्थित, घोरदंष्ट्रा, कराला, स्वीय आवेश में हास्यमुखी, सब प्रकार के अलंकारों से अलंकृत(विभूषित) और विश्वव्यापिनी जल के भीतर श्वेतपद्म पर स्थित हैं । (नींलतंत्र से)
तारा यंत्र । देवी तारा यंत्र
सुर्वणादिपीठे गोरोचनाकुंकुमादिलिप्ते ।
‘ओं आ: सुरेखे वजुरेखे ओंफट् स्वाहा’
इति मन्त्रेणाधोमुखत्रिकोणगर्भाष्टदलपद्मं वृत्तं चतुरस्त्र चतुर्दारयुक्तं यंत्रमुद्धरत् ।
टीका – स्वर्णादिपीठों (चौकी) पर गोरोचना वा कुंकुमादि से लेप करके ‘ॐ आ: सुरेखे’ इत्यादि मंत्र से अधोमुख त्रिकोण में अष्टदल पर (कमल बनावे), उसके बाहर गोलाकार चौकोर और चतुद्द्वार-समन्वित यंत्र खींचे । यह मन्त्र है, ‘ॐ ऐं ह्रीं क्रीं हुँ फट्’ ।
तारा मंत्र जाप । तारा मंत्र होम
लक्षद्वयं जपोद्विद्यां हविष्याशी जितेन्द्रियः ।
पलाशकुसुमैर्देवीं जुहुयात्तद्दशांशतः ।।
टीका – हविष्याशी और जितेन्द्रिय होकर यह मंत्र दो लक्ष जपकर पलाश पुष्प द्वारा उसका दर्शांश होम करना चाहिए ।
तारा स्तोत्र । मां तारा स्तोत्र । तारास्तव
तारा च तारिणी देवी नागमुण्डविभूषिता ।
ललजिह्वा नीलवर्णा ब्रह्मरूपधरा तथा ।
नागाञ्चितकटी देवी नीलाम्बरधरा परा ।
नामाएकमिदं स्तोत्रं यः पठेत् शृणुयादपि ।
तस्य सर्वार्थसिद्धिः स्यात् सत्यं सत्यं महेश्वरि ।।
टीका – (१) तारा, (२) तारिणी, (३) नागमुण्डों से विभूषित,(४) चलायमान जिह्वा, (५) नील वर्ण वाली, (६) ब्रह्मरूपधारिणी, (७) नागों से अंचित कटी और (८) वीं नीलाम्बरा, यह अष्टनामात्मक ताराष्टक स्तोत्र का पाठ अथवा श्रवण करने से सर्वार्थसिद्धि होती है । भैरव जी कहते हैं – हे माहेश्वरी, यह बिल्कुल सत्य है ।
तारा कवच | तारा कवच पाठ
भैरव उवाच
दिव्यं हि कवचं देवी तारायाः सर्वकामदम् ।
शुणुष्व परमं तत्तु तव स्नेहात् प्रकाशितम् ।।
टीका – भैरव ने कहा-हे देवि ! तारा देवी का दिव्य कवच सर्वकामप्रद और श्रेष्ठ है । तुम्हारे प्रति स्नेह के कारण ही कहता हूँ, सुनो।
अक्षोभ्य ऋषिरित्यस्य छन्दस्त्रिष्टुबुदाहृतम् ।
तारा भगवती देवी मंत्रसिद्धौ प्रकीर्त्तिम् ।।
टीका – इस कवच के ऋषि अक्षोभ्य हैं, छंद त्रिष्टुप् है, देवता भगवती तारा हैं और मंत्र सिद्धियों में इसका विनियोग है ।
ओंकारः मे शिरः पातु ब्रह्मरूप महेश्वरी ।
हींड्कारः पातु ललाटे बीजारूपा महेश्वरी ।।
स्त्रीङ्कारः पातु वदने लज्जारूपा महेश्वरी ।
हुङ्कारः पातु हृदये तारिणी शक्तिरूपधृक् ।।
टीका – ॐ ब्रह्मरूपा महेश्वरी मेरे मस्तक की, ह्रीं बीजरूपा महेश्वरी मेरे ललाट की, स्त्री लजजारूपा महेश्वरी मेरे मुख की और हूँ शक्तिरूपधारिणी तारिणी मेरे हृदय की रक्षा करें ।
फट्कारः पातु सर्व्वांगे सर्वसिद्धि – फलप्रदा ।
खर्वा मां पातु देवेशी गण्डयुग्मे भयावहा ।।
लम्बोदरी सदा स्कन्धयुग्मे पातु महेश्वरी ।
व्याघ्रचर्मावृता कटिं पातु देवी शिवप्रिया ।।
टीका – फट् सर्वसिद्धि फलप्रदा सर्वांगस्वरूपिणी भयनाशिनी खर्वा देवी दोनों कपोलों की, महेश्वरी लम्बोदरी देवी दोनों कन्धों की और व्याघ्रचर्मावृता शिवप्रिया मेरे कटि (कमर) की रक्षा करें ।
पीनोन्नतस्तनी पातु पार्श्वयुग्मे महेश्वरी ।
रक्तवर्त्तुनेत्रा च कटिदेशे सदाऽवतु ।।
ललजिह्वा सदा पातु नाभौ मां भुवनेश्वरी ।
करालास्या सदा पातु लिङ्गे देवी हरप्रिया ॥
टीका – पीनोन्नतस्तनी महेश्वरी दोनों पार्श्व की, रक्तगोलनेत्र वाली कटि की, ललज्जिह्वा भुवनेश्वरी नाभि की और करालवदना हरप्रिया मेरे लिंगस्थान की सदैव रक्षा करें ।
विवादे कलहे चैव आग्नौ च रणमध्यतः ।
सर्वदा पातु मां देवी झिण्टीरूपा वृकोदरी ।।
टीका – झिण्टीरूपा वृकोदरी देवी विवाद में, कलह में, अग्नि मध्य में तथा रणमध्य में सदैव मेरी रक्षा करें ।
सर्वदा पातु मां देवी स्वर्गे मत्त्ये रसातले ।
सर्वास्त्रभूषिता देवी सर्वदेवप्रपूजिता ।।
क्रीं क्रीं हुं हुं फट् फट् पाहि पाहि समन्ततः । ।
टीका – सब देवताओं से पूजित समस्त अस्त्रों से विभूषित देवी मेरी स्वर्ग, मत्त्य और रसातल में रक्षा करें । ‘क्रीं क्रं हुँ हुँ फट् फट्’ यह क्रीं बीजमंत्र मेरी सब ओर से रक्षा करे ।
कराला घोरदशना भीमनेत्रा वृकोदरी ।
अट्टहासा महाभागा बिघूर्णितत्रिलोचना ।।
लम्बोदरी जगद्धात्री डाकिनी योगिनीयुता ।
लज्जारूपा योनिरूपा विकटा देवपूजिता ।।
पातु मां चण्डी मातंगी ह्यग्रचण्डा महेश्वरी ।।
टीका – महाकराल, घोर दाँतों वाली, भयंकर नेत्रों और वृकोदरी (भेड़िये के समान उदर वाली), जोर से हँसने वाली, महाभाग वाली, घूर्णित तीन नेत्रोंवाली, लम्बायमान उदरवाली, जगत् की माता, डाकिनी, योगिनियों से युक्त, लजजारूप, योनिरूप, विकट तथा देवताओं से पूजित, उग्रचण्डा महेश्वरी मातंगी मेरी रक्षा करें ।
जले स्थले चान्तरिक्षे तथा च शत्रुमध्यतः ।
सर्वतः पातु मां देवी खड्गहस्ता जयप्रदा ।।
टीका – खड्गधारिणी, जय देने वाली देवी मेरी जल में, स्थल में, शून्य में, शत्रुओं के मध्य में और अन्यान्य सभी स्थानों में रक्षा करें ।
कवचं प्रपठेद्यस्तु धारयेच्छृणुयादपि ।
न विद्यते भयं तस्य त्रिषु लोकेषु पार्वति ।।
टीका – जो व्यक्ति (साधक) इस कवच को पढ़ते हैं, धारण करते हैं अथवा सुनते हैं, हे पार्वति ! उन्हें तीनों लोकों में कही भी भय नहीं रहता है ।