विट्ठल भाई पटेल | Vithalbhai Patel

विट्ठल भाई पटेल की जीवनी

Vithalbhai Patel Biography

विट्ठल भाई पटेल झवेरभाई पटेल का जन्म नडियाड में २७ सितंबर १८७३ को हुआ था। अपने छः भाई-बहनों में उनका तीसरा स्थान था। उनके जन्म के दो वर्ष बाद उनके छोटे भाई सरदार वल्लभाई पटेल का जन्म हुआ, जो आगे चलकर भारत के “विस्मार्क” सिद्ध हुए। उनके पिता का नाम था झवेरभाई और मां का लाड़बाई था।

Vithalbhai Patel

संक्षिप्त विवरण(Summary)[छुपाएँ]
विट्ठल भाई पटेल जीवन परिचय
पूरा नाम विट्ठल भाई झवेरभाई पटेल
जन्म तारीख २७ सितंबर १८७३
जन्म स्थान नडियाड (गुजरात)
धर्म हिन्दू
पिता का नाम झवेरभाई पटेल
माता का नाम लाड़बाई
पत्नि का नाम दिवालीबाई
भाई / बहन कुल ६ भाई व बहन
पिता का कार्य साधारण किसान
माता का कार्य गृहणी
शिक्षा प्रारम्भिक शिक्षा(नडियाड),
हाई स्कूल,
वकालत की शिक्षा,
बैरिस्टरी(इंग्लैंड)
कार्य वकील(गोधरा) ,
तालुका/जिला बोर्ड के सदस्य,
बंबई कौंसिल के सदस्य,
भारतीय कांग्रेस के सदस्य,
इंपीरियल लेजिस्लेटिव कौसिल
के भी सदस्य,
बारडोली आंदोलन का नेतृत्व,
असहयोग आंदोलन मे सहयोग,
स्वराज पार्टी की स्थापना,
लेजिस्लेटिव असेंबली के अध्यक्ष
मृत्यु तारीख २२ अक्तूबर १९३३
मृत्यु स्थान जेनेवा, स्वीजरलेन्ड
उम्र ६० वर्ष
मृत्यु की वजह जेल मे बीमार पड़ने और
लंबे समय तक बीमार रहने

विट्ठल भाई के पिता की आर्थिक स्थिति साधारण थी। उनके यहां खेती होती थी, उनकी कुछ जमीन भी थी। पर आर्थिक स्थिति साधारण होने के बावजूद वीरता में वह किसी से कम न थे। १८५७ की महान क्रांति के दिनों में तीन साल तक वह लापता रहे। बाद में ज्ञात हुआ कि वह झांसीवाली रानी के साथ मिल कर क्रांति में अपनी भूमिका अदा कर रहे थे।

उन्हीं दिनों की एक और घटना है। झवेरभाई महाराज मल्हारराव के कैंदी हो गए। एक दिन कैदखाने के सामने बैठे महाराज शतरंज खेलते हुए गलत चाल चलने लगे। सींखचों के पीछे बैठे झवेरभाई से यह सहन नहीं हुआ। वहीं से उन्होंने महाराज को ठीक चाल सुझा दो। उनकी बुद्धिमत्ता को देखकर मल्हारराव ने उन्हें रिहा कर दिया। देशभक्ति और बुद्धिमत्ता, ये दोनों गुण उनके पुत्रों को विरासत में मिले ।

विट्ठलभाई का जन्म तो नडियाड में हुआ, पर उनके बचपन का एक एक बड़ा भाग खेड़ा जिलांतर्गत करमसद गांव में बीता। पांच वर्ष की अवस्था में वह स्कूल में पढ़ने के लिए बैठाए गए। वहां वह एक चतुर और शरारती विद्यार्थी के रुप में गिने जाते थे। किन्तु पढ़ाई में उन्होंने कभी ढील न आने दी। कुछ समय बाद, हाई स्कूल पढ़ने के लिए वह अपने मामा के पास नडियाद चले गए। वहां उनकी स्मरण शक्ति का सिक्का शीघ्र ही सब पर जम गया। एक बार परीक्षा में उन पर नकल करने का आरोप लगाया गया, क्योंकि एक प्रश्न का उत्तर उन्होंने बिल्कुल पुस्तक के शब्दों में ही लिख दिया था। अतः जांच के लिए उन्हें एक पैराग्राफ पढ़ने को दिया गया और कुछ मिनट बाद उसे अपनी याददाश्त से कागज पर लिखने कहा गया। उन्होंने बड़ी आसानी से यह काम किया और शिक्षकगण उनकी स्मरण शक्ति का लोहा मान गए।

हाई स्कूल में भी विट्ठलभाई की शरारतों का अंत नहीं हुआ। कभी-कभी तो अध्यापकों को उन्हें वश में रखना कठिन हो जाता था । कई बार वह बड़े कठोर मजाक भी कर बैठते थे। एक बार उन्होंने किसी दूसरे नाम से एक व्यक्ति को पत्र लिख दिया कि उसका दामाद गुजर गया है। स्वभावत: ही उसके घर में रोना-पीटना मच गया। लड़की ने अपनी चूड़ियां तोड़ डालीं। पर तीन दिन बाद जब वह अपने दामाद के घर पहुंचे, तो वहां दामाद सही-सलामत हाजिर था। बाद में पूछने पर विट्ठलभाई ने अपना कसूर मान लिया। ऐसा उन्होंने इसलिए किया था कि वह यह देखना चाहते थे कि किसी की मृत्यु का लोगों पर क्या प्रभाव पड़ता है।

१८९१ में उन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा पास की। इसी बीच दिवालीबाई से उनका विवाह भी हो गया। सन १८९५ में उन्होंने वकालत की परीक्षा पास करके गोधरा में वकालत शुरु की। वह अधध्यनकर्ता तो थे ही, कुछ ही समय उनकी वकालत चल पड़ी | १८९८ में, वह बोरसद आ गए, क्योंकि यह जगह उनके घर के पास थी। फिर १९०५ में जब उनके छोटे भाई वल्लभाई पटेल को इंग्लैंड जाने का पासपोर्ट मिला, तो उनकी जगह वह स्वयं ही इंग्लैंड के लिए रवाना हो गए और वहां पहुंच कर बैरिस्टरी पढ़ने लगे। पासपोर्ट के मामले में यह उलट-फेर इसलिए संभव हुआ कि उसमें वी.जे. पटेल नाम लिखा था, जिससे विट्ठलभाई का भी नाम बनता था और वल्लभाई का भी इंग्लैंड से वापस आने पर उन्होंने फिर प्रैक्टिस शुरु कर दी। पर अभी कुछ ही समय बीता होगा किं उन्हें एक गहरा धक्का लगा। इसके तीन साल बाद १९१० मे उनकी पत्नी का देहांत हो गया। इसके बाद वह सार्वजनिक कार्यों में विशेष रुचि लेने लगे और लोगों के बीच काफी लोकप्रिय बन गए।

सन १९११ में तालुका बोर्ड और जिला बोर्ड के सदस्य चुने गए। फिर १९१२ में बंबई कौंसिल के सदस्य बने पर उनके जीवन में महान क्रांतिकारी मोड़ १९१५ में आया, जब वह भारतीय कांग्रेस के सदस्य बने। १९१७ से तो उन्होंने सरकार को बहुत ही आड़े हाथों लेना शुरू किया। इसी वर्ष वह इंपीरियल लेजिस्लेटिव कौसिल के भी सदस्य चुने गए। फिर ३ फरवरी १९१८ को वह बंबई राजनीतिक सम्मेलन (बीजापुर) स्वागत समिति के भी अध्यक्ष चुने गए। इसके दूसरे वर्ष १९१९ में, “गवर्नमेंट आफ इंडिया बिल” के बारे में संयुक्त संसदीय समिति के सामने उन्होंने कांग्रेस के एक प्रतिनिधि के रूप में गवाही दी। फिर, कांग्रेस के प्रचार के लिए १९२० में वह इंग्लैंड गए और वही लोकमान्य तिलक के घनिष्ठ संपर्क में आए। तदुपरांत, १९२२ में उन्होंने कर न देने संबंधी बारडोली आंदोलन का नेतृत्व किया। उसी वर्ष उन्होंने विधान मंडलों में भाग लेने का समर्थन भी किया। जब वह इंपोरियल कॉसिल के सदस्य थे, तभी उन्होंने “हिंदू मैरिज वेलिडिटी बिल” पेश किया, जिसके अंतर्गत विभिन्न जातियों के हिंदुओं के बीच शादी की व्यवस्था थी। इससे उनके समाज सुधार संबंधी विचारों का पता चलता है। वह जात-पात की प्रथा को बहुत ही राष्ट्रघाती समझते थे।

इसी बीच असहयोग आंदोलन शुरू हुआ, उन्होने असहयोग आंदोलन मे हिस्सा लिया मगर चौरा-चौरी कांड के बाद गांधीजी ने सलाह किए बगैर असहयोग आंदोलन वापस ले किया इससे विट्ठलभाई पर गांधी जी की अपेक्षा लोकमान्य तिलक का प्रभाव अधिक पड़ा । विट्ठलभाई हर जगह सरकार के मार्ग में रुकावटें डालना चाहते थे। वह गांधी जी की तरह केवल आध्यात्मिक और नैतिक विरोध के पक्षधर नहीं थे। इसी तरह वह अनावश्यक त्याग के पक्ष में भी नहीं थे। वह इस बात को पसंद नहीं करते थे कि विद्यार्थी स्कूल और कालेज छोड़ दें । पर इन सब मतभेदों के वह विदेशी माल के बहिष्कार के समर्थक थे। गांधी जी का वह आदर करते थे और जहां कहीं संभव होता था, उनका समर्थन करते थे अपने को वह गांधी जी के “धर्मयुद्ध का रावण” कहते थे। इन्ही वजह से विट्ठल भाई ने कांग्रेस छोड़कर चित्तरंजन दास और मोतीलाल नेहरू के सहयोग से “स्वराज पार्टी” की स्थापना की | हालांकि विधान की खामियों को वह समझते थे, पर उनका विचार था कि हर जगह सरकार का विरोध किया जाए और विधान-मंडलों में भी सरकार का विरोध जरूरी है।

विट्ठलभाई और वल्लभभाई, दोनों में यही बड़ा अंतर था। वल्लभभाई बिना किसी झिझक के आंखें मूंद कर गांधी जी के पीछे चलते थे, पर विट्ठलभाई गांधी जी की केवल उन्हीं बातों को मानते थे, जो उनकी समझ में आती थीं। विट्ठलभाई अंग्रेजी शिक्षा दीक्षा के हामी थे, जब कि वल्लभभाई देश के बाहर ताकना तक नहीं चाहते थे। विट्ठलभाई ने जो कुछ काम किया, उसका बड़ा भाग विधान-मंडलों में रह कर किया। इसके विपरीत वल्लभभाई ने आजादी मिलने से पहले तक विधान मंडलों में पैर तक न रखा। कांग्रेस को संगठित करने में ही उनका सारा जीवन बीता।

विट्ठलभाई १३ जनवरी १९२४ को लेजिस्लेटिव असेंबली के सदस्य चुने गए और २२ अगस्त १९२५ को असेबली के प्रसिडेट (अध्यक्ष) पद पर आसीन हुए। आज तक हम उन्हें “प्रेसिडेंट पटेल” के रूप में याद करते हैं।

उस समय की केंद्रीय लेजिस्लेटिव असेंबली के सदस्यों में देश के कई प्रसिद्ध नेता थे । पं. मोतीलाल नेहरू, मुहम्मद अली जिन्ना, पंडित मदनमोहन मालवीय, लाला लाजपतराय, रंगस्वामी अय्यंगार, विपिनचंद्र पाल, सर चिमनलाल सीतलबाड, सर पुरुषोत्तमदास ठाकुरदास, सर हरिसिंह गौड आदि उनमें प्रमुख थे। उस समय अध्यक्ष के पद पर रहते हुए विट्ठलभाई ने जो महान परंपरा स्थापित की, वह किसी भी देश की संसद के जिन कमियों के होते हुए उन्हें काम करना पडा, उन्हें देखते हुए उनका अध्यक्षीय काल चिरस्मरणीय रहेगा। उनके अध्यक्ष बनने से पहले लेजिस्लेटिव असेंबली की कोई परंपरा थी ही नहीं। पर उन्होंने बड़ी दुढ़ता, निर्भयता और निष्पक्षता से अपना कर्त्तव्य संपादन किया।

चूंकि असेंबली के अध्यक्ष को सभी दलों के प्रति निष्पक्ष होना चाहिए था, इसलिए अध्यक्ष के रूप में उन्हें जो वेतन मिलता था, उसमें से उन्होंने अपनी स्वराज पार्टी तक को चंदा देना बंद कर दिया। हां, राष्ट्रीय कामों के लिए गांधी जी को वह बराबर काफी बड़ी रकम देते रहे।

उस समय एक परंपरा थी कि जब वायसराय सदन में आता था, तब अध्यक्ष अपनी कुर्सी खाली करके सदस्यों में जा बैठता था, पर विट्ठलभाई ने इस परंपरा को तोड़ दिया। वह अपनी कुर्सी पर बैठे रहे और वहीं से वायसराय भाषण करने के लिए कहा।

जब सारे देश ने “साइमन कनीशन” के बहिष्कार का फैसला किया, तब उनके सामने बड़ी विकट स्थिति पैदा हो गई। पर उन्होंने अपने ढंग से स्थिति को बहुत अच्छी तरह संभाला । वह तब तक सर साइमन और उनके साथियों से नहीं मिले, जब तक उन्होंने उनसे लेजिस्लेटिव असेंबली के अध्यक्ष के नाते औपचारिक रूप से भेंट न की ।

इसी तरह, जब द्वितीय सार्वजनिक सुरक्षा विधेयक सदन में पेश किया जाने लगा तब प्रसिद्ध मेरठ षड्यंत्र का मुकदमा चालू था। उस समय उन्होंने सरकार से कहा कि चूंकि मामला न्यायालय के विचाराधीन है, इसलिए या तो सदन में उस पर विचार न किया जाए या फिर मुकदमा वापस ले लिया जाए। पर सरकार ने उनके सुझावों पर विचार करने से इंकार कर दिया और इसके उत्तर में उन्होंने उस विश्रेयक को सदन में पेश होने से रोक दिया।

सदन की मर्यादा के प्रति वह कितने जागरूक थे, यह इस घटना से स्पष्ट हो जाता है। एक बार भारत के तत्कालीन अंग्रेज कमांडर-इन-चीफ ने सदन में एक लंबा भाषण झाड़ा और फिर उठ कर चलते बने। जब उनके भाषण पर विवाद शुरू हुआ, तो वह अपनी जगह पर उपस्थित नहीं थे। इस पर अध्यक्ष ने सरकार को साफ-साफ बता दिया कि अपनी इस गलती के लिए जब तक कमांडर-इन- चीफ माफी नहीं मांगेंगे, तब तक वह उन्हें सदन में नहीं बोलने देंगे। आखिर, कमांडर-इन-चीफ को माफी मांगनी पड़ी।

इसी तरह, जब अंग्रेजी के दो अखबारों, टाइम्स आफ इंडिया और लंडन डेली टेलीग्राफ के संवाददाताओं ने अध्यक्ष की शान के विरुद्ध कुछ लिखा, तो उन्होंने उनका प्रेस-पास खारिज कर दिया। उस समय यह एक बहुत हिम्मत का काम था अंत में, टाइम्स आफ इंडिया के मालिकों और संवाददाता ने क्षमा याचना की। यद्यपि अध्यक्ष के रूप में सरकार से उनकी हमेशा लड़ाई चलती रहती थी, पर वायसराय लार्ड इरविन से उनके व्यक्तिगत संबंध बहुत ही मधुर थे। उन्हीं की राय पर लार्ड इरविन ने गोलमेज कांफ्रेंस का आयोजन किया था, उन्हीं की कोशिशों से गांधी-इरविन भेंट भी संभव हुई थी।

कुछ समय बाद १९२८ में लाहौर में पं.जवाहरलाल नेहरू के सभापतित्व में हुए कांग्रेस के अधिवेशन ने पूर्ण स्वराज्य और विधानमण्डलों के बहिष्कार का प्रस्ताव पास किया। उस समय विट्टलभाई ने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देना इस आधार पर अस्वीकार कर दिया कि अध्यक्ष दलबंदी से ऊपर होता है। लेकिन कुछ काल बाद, जब उन्होंने देखा कि वह न्यायपूर्वक काम नहीं चला सकते, तो २५ अप्रेल १९३० को उन्होंने अध्यक्ष पद से त्यागपत्र दे दिया।

अध्यक्ष के रूप में उनकी निष्पक्षता के सब लोग कायल थे। इसकी सबसे बड़ी पहचान यह है कि जहां १९२५ में वह बहुत थोड़े बहुमत से चुने गए थे, वहां १९२७ में सर्वसम्मति से अध्यक्ष निर्वाचित हुए। पर उस समय भारत गुलाम था। इग्लैंड में जब अध्यक्ष त्यागपत्र देता है, तब उसे पेंशन आदि मिलती है, इधर विट्ठलभाई को उपहार-स्वरूप मिली छ: महीने की कैद की सजा। कुछ समय बाद अंबाला जेल में वह बीमार पड़ गए और स्वास्थ्य सुधार के लिए उन्हें जेनेवा जाना पड़ा। वहां उनका आपरेशन हुआ। इसके बाद २८ दिसंबर, १९३१ को वह वापस भारत लॉटे। पर लौटने के कुछ ही महीने बाद उन्हें फिर भायखला जेलमें बंद कर दिया गया। फलत: उनका स्वास्थ्य फिर खराब हो गया और वह पुन: अमेरिका तथा जेनेवा गए। अवस्था में कुछ विशेष सुधार नहीं हुआ। वह १९३३ के अंत में भीषण रूप से बीमार पड़े और २२ अक्तूबर १९३३ को इस लोक से विदा हो गए।


FAQ`s

Questation : विट्ठल भाई पटेल का पूरा नाम क्या था?

Answer : विट्ठल भाई पटेल का पूरा नाम विट्ठल भाई झवेरभाई पटेल था |

Questation : विट्ठल भाई पटेल का जन्म कब हुआ था ?

Answer : विट्ठल भाई पटेल का जन्म २७ सितंबर १८७३ को हुआ था |

Questation : विट्ठल भाई पटेल का जन्म कहा हुआ था ?

Answer : विट्ठल भाई पटेल का जन्म नडियाड (गुजरात) मे हुआ था |

Questation : विट्ठल भाई पटेल के पिता का क्या नाम था ?

Answer : विट्ठल भाई पटेल के पिता का नाम झवेरभाई पटेल था |

Questation : विट्ठल भाई पटेल के माता का क्या नाम था ?

Answer : विट्ठल भाई पटेल के माता का नाम लाड़बाई था |

Questation : विट्ठल भाई पटेल की पत्नी का क्या नाम था ?

Answer : विट्ठल भाई पटेल की पत्नी का नाम दिवालीबाई था |

Questation : विट्ठल भाई पटेल की मृत्यु कब हुई ?

Answer : विट्ठल भाई पटेल की मृत्यु २२ अक्तूबर १९३३ लंबे समय तक बीमार रहने के कारण हुई |

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